कविता

अनकही

” अनकही ”

हंसते हुए, मुस्कुराते हुए
मिलते चेहरे हैं हर कहीं,
इसी के पीछे कहीं गहराइयों में
छिपी है व्यथा अनकही ।

हर चेहरे पर एक और चेहरा
होता है सदा अनदेखा ,
हंसी की उजली किरणों के बीच
खींची जाती है दर्द की काली रेखा।

कांटों के बीच खिलते हैं गुलाब
जाने कितनी चुभन सहते हैं,
सहकर वे व्यथा अनंत
सबको खुशियां बांटते हैं ।

सुगंध अपनी फैलाकर
महकते हैं चारों दिशा,
जैसे भोर को लालिमा फैले
जब समाप्त होती है निशा ।

कौन है ऐसा जग में भला
जो कभी डूबा ना हो दुख सागर में,
चूभे ना हो पग में कांटें
चलते हुए जीवन डगर में ।

खिलना कांटों में गुलाब की नियति
नियति पीड़ा लिए सबको चलना निरंतर,
यही है विधाता का लेखा जोखा
इस लेख से बंधा यह सारा संसार ।

पूर्णता मौलिक- ज्योत्स्ना पाॅल

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]