अनकही
” अनकही ”
हंसते हुए, मुस्कुराते हुए
मिलते चेहरे हैं हर कहीं,
इसी के पीछे कहीं गहराइयों में
छिपी है व्यथा अनकही ।
हर चेहरे पर एक और चेहरा
होता है सदा अनदेखा ,
हंसी की उजली किरणों के बीच
खींची जाती है दर्द की काली रेखा।
कांटों के बीच खिलते हैं गुलाब
जाने कितनी चुभन सहते हैं,
सहकर वे व्यथा अनंत
सबको खुशियां बांटते हैं ।
सुगंध अपनी फैलाकर
महकते हैं चारों दिशा,
जैसे भोर को लालिमा फैले
जब समाप्त होती है निशा ।
कौन है ऐसा जग में भला
जो कभी डूबा ना हो दुख सागर में,
चूभे ना हो पग में कांटें
चलते हुए जीवन डगर में ।
खिलना कांटों में गुलाब की नियति
नियति पीड़ा लिए सबको चलना निरंतर,
यही है विधाता का लेखा जोखा
इस लेख से बंधा यह सारा संसार ।
पूर्णता मौलिक- ज्योत्स्ना पाॅल