कविता

रिश्ते

रिश्ते हमारे सभी महक रहे, गुलाब सम होते हैं
साथ जिसके रहते, खूब ही काँटे भी तो होते हैं
पहले तो होता था आपस में, रिश्तों में अपनापन,
अब तो नहीं है ऐसा, सब रिश्ते पराये होते हैं।

माँ-बाप का रिश्ता सुहाना, निराला बहुत होता है
बहन-बेटी-नार से घर में, उजाला बहुत होता है
दो कुलों में सारे रिश्ते, निभाने वाली नारी है,
रिश्तों में नारी का मान बड़ा, तुलसी सम होता है।

घर में आपस में रिश्ते सब, वट-वृक्ष जैसे होते हैं
जिसकी छाँव तले ही भोले, मासूम बड़े होते हैं
मिलता घर में रिश्तों को स्वाभिमान, बल, मान-सम्मान,
रिश्तों से ही परिवार में, सब संस्कारित होते हैं।

शिक्षा के आयाम तो सुनो, जितने बढ़ते जाते हैं
सभ्यता-संस्कारों को सब उतना ही भूल जाते हैं
दूरदर्शन, मोबाइल ने पैदा, कर दीं सब दूरियाँ,
आसपास रह कर भी तो सब, बात नहीं कर पाते हैं।

बदल गया समय हुईं दीवारें, खड़ी अब तो  रिश्तों में
सदियाँ जैसे बीत चलीं कोई, मिले नहीं रिश्तों में
मरहम लगाये कौन कैसे बोलो, रिसते घावों में,
विश्वास-आस्था गुम, उपजे घात-प्रतिघात रिश्तों में।

बड़े-बुज़ुर्ग देखो बच्चों के, संग-साथ को तरसते
दुख-दर्द है कराह रहा देखो, अरमान यहाँ पिसते
स्नेहिल-स्निग्ध माधुर्य का मोल अब, जाने नहीं कोई,
पीड़ा में पिरा रहे सब, टूटे ख़्वाब हैं  सिसकते।

रिश्तों में दरारें-स्वार्थ भाव, आना नहीं चाहिए
रिश्तों में व्यापार, घमंड कभी, आना नहीं चाहिए
रिश्ते सँभालना पारे सम, हाथ से फिसल जाते हैं,
बुज़ुर्गों को दे सम्मान, रिश्ते लगाना ही चाहिए।

रवि रश्मि ‘अनुभूति’