लघुकथा

एक अनोखी दिवाली

गांव में सब का घर माटी के दीपों से तथा बिजली के रोशनी से रोशन हो जगमगा रहा था। परर.. इन सब के बीच में एक घर था जो बिल्कुल अनंत अंधकार में डूबा हुआ था। ना कोई चहल-पहल, ना किसी की आवाज, बिल्कुल सुनसान। सभी घरों से पटाखे चलने की ध्वनि सुनाई दे रही थी। कुछ पटाखे तो ऊपर आसमान में जाकर सतरंगी प्रकाश फैला रहे थे। बच्चों की किलकारियों तथा हल्ला गुल्ला से सारा माहौल तनाव रहित होकर जैसे आनंद से झूम रहा था। परंतु…भंवरी देवी इन सब बातों से अंजान अपनी दुनिया में खोई हुई थी.…।

“मां में इस दिवाली में एक हफ्ते के लिए घर आ रहा हूं। मेरी छुट्टी मंजूर हो गई है, तुम कहती थी ना कि.. सेना में भर्ती होने के बाद मैं तुम्हें भूल गया हूं। ऐसा नहीं है मां, यह देश भी तो मेरी मां है। देश के प्रति मेरा जो कर्तव्य है, उसे मैं कैसे भुला सकता हूं। और तुम तो मेरी इतनी अच्छी समझदार मां हो। हिम्मत वाली हो। तुम ही ने तो मुझे अपना कर्तव्य सिखाया है, तभी तो मैं देश पर मर मिटने का हौसला जुटा पाया हूं।”…बेटे की चिट्ठी पढ़ते पढ़ते भंवरी देवी की आंखों से झर झर आंसू झरने लगे। पड़ोस में सब लोगों को उसने बता रखा था कि…” मेरा बेटा जगदीश इस बार दिवाली पर घर आ रहा है एक हफ्ते के लिए।”… सब को बताते बताते जैसे उसकी आंखों से खुशियों की फुलझड़ियां छूट रही थी। दो साल के बाद बेटा जो घर आ रहा था।

अचानक एक दिन दिवाली के एक हफ्ता पहले सेना की एक टुकड़ी तिरंगे में लिपटा हुआ, कुछ कंधों पर उठाकर भंवरी देवी के घर के आंगन में आकर रुक गई। भंवरी देवी देख कर अचंभित हो गई, उसे समझ में नहीं आया कि सेना कंधों पर उठाकर क्या लेकर आई है। उसने पूछा…”क्या बात है बच्चों तुम लोग क्या ले लेकर आए हो मेरे घर। और.. मेरा बेटा दिखाई नहीं दे रहा है, वह कहां पर है? वह तो दिवाली पर आने वाला था। परर.. उसने क्या भेजा मेरे लिए दिवाली पर, दिखाओ जरा मैं भी तो देखूं!”… भंवरी देवी ने हंसते हुए कहा।

सेना के एक जवान ने तिरंगा हटाते हुए भंवरी देवी से कहा…”माताजी.. हम.. जगदीश को साथ लेकर आए हैं। वह हमेशा के लिए अमर हो गया। आतंकवादियों से लड़ते लड़ते उसने पांच आतंकवादियों को मार गिराये और खुद शहीद हो गया। उसके जैसे जांबाज बहुत कम होते हैं! उस पर हमें फक्र है! उसने अपने माता पिता का नाम रोशन कर दिया!”
भंवरी देवी बेटे के पार्थिव शरीर को देख कर पत्थर सी हो गई। न आंखों से आंसू निकले, ना कुछ बोला। कुछ साल पहले की ही बात है, जब जगदीश के पिता आतंकवादियों से लड़ते लड़ते शहीद हो गए थे! और.. जाते जाते वह एक संदेश दे गए थे अपनी पत्नी के नाम कि..” मेरे बाद मेरे बेटे को सेना में अवश्य भेजना, भारत मां की सेवा के लिए। जो मैं पूरा नहीं कर पाया, वह जगदीश पुरा करेगा।”
भंवरी देवी ने पति की इच्छा पूरी करने तथा उनके सम्मान की रक्षा के लिए जगदीश को सेना में भर्ती कराई थी। अब वह बिल्कुल अकेली थी। गांव में कोई नहीं था उसे अपना कहने वाला।
“चाची.. चाची.. कहां हो आप? देखो हम लोग आए हैं।”… पड़ोस की नंदू ने आवाज दी।
नंदू की आवाज सुनकर भंवरी देवी बाहर निकली तो देखा 8-10 बच्चें तिरंगा हाथ में लिए तथा एक थाली में कुछ दिए जलाकर उसके घर के आंगन में खड़े थे।
सब को देख कर भंवरी देवी ने बड़ी उदासी से कहा…” क्या है बच्चों तिरंगा और दिए लेकर क्यों आए हो? तुम्हें तो सब कुछ मालूम है कि.. मैं दिवाली नहीं मना सकती। मेरे घर का दीप ही बुझ गया, तो कौन दीवाली मनाएगा? मेरे लिए तो अंधेरा और उजाला एक समान है। तुम लोग जाओ। मुझे अकेला रहने दो।”
“नहीं चाची.. हम जाने के लिए नहीं आए हैं। हम जगदीश भैया के सम्मान में दिवाली मनाएंगे।”.. आंगन के बीच में तिरंगा लगाकर बच्चों ने चारों ओर दिए लगा दिए।
इतने दिनों के बाद आज भंवरी देवी की आंखों से हृदय वेदना पिघल कर निकल रही थी। वह फूट-फूट कर रोने लगी।
बच्चों ने भंवरी देवी के पास आकर उनके आंसू पोछे और हाथ पकड़ कर कहा..” आओ चाची हम सब मिलकर आज दिवाली मनाएंगे। जगदीश भैया की आत्मा को शांति मिलेगी यह देखकर कि..” मेरी मां दुखी नहीं है! मेरी मां अकेली नहीं है! सब उनके साथ है…!!”
और भंवरी देवी बच्चों को मना नहीं कर पाई, उसने एक दीया उठाकर तिरंगे के सामने रख दी और मन ही मन कहां शुभ दीपावली बेटा..! उसके चेहरे पर दर्द की काली रेखाओं के बीच हंसी की एक छोटी सी किरण बिखर गई…!!

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]