जीवन के दोहे
जीवन मुरझाने लगा, ऐसी चली बयार !
स्वारथ मुस्काने लगा, हुआ मोथरा प्यार !!
बिकता है अब प्यार नित, बनकर के सामान !
भावों की अब खुल गई, सुंदर बड़ी दुकान !!
सब ही अपने में घिरे, त्याग दिये सब त्याग !
कैसे होगा फायदा, ख़ूब गुणा औ’ भाग !!
अंधकार से दोस्ती, सूरज को धिक्कार !
सच्चे का मुंह स्याह कर, करें झूठ जयकार !!
चहरों पर परतें चढ़ीं, असलीपन सब लुप्त !
परसेवा के नाम पर, है हर इक अब सुप्त !!
शेष नहीं संवेदना, निष्ठुर आज समाज !
नेह,प्रेम,करुणा नहीं, करे कपट अब राज !!
— प्रो. शरद नारायण खरे