ग़ज़ल
दूर होकर भी पास होता है
वो जो हंसकर उदास होता है
बाज मौकों पे आम होकर भी
गैर अपनों से खास होता है
मुस्कराता है चोट खाकर भी
आदमी गमशनास होता है
अपना अख़लाक़ बेचने वाला
कामनाओं का दास होता है
तन की पारो उसे नहीं मिलती
मन से जो देवदास होता है
वो नहीं दिल वो एक मंदिर है
जिसमें तेरा निवास होता है
चिमनियां जब धुंआ उगलती हैं
बस्तियों में उजास होता है
दूर से घूरते हैं लोग मुझे
तू मेरे आसपास होता है
— देवकी नंदन ‘शान्त’