कविता – वत्त
वत्त
दूर तक फैले पहाड़ों के बीच से
धूप जो आ रही है पास
थोड़ी देर रुककर वह, लौटती है, फटाफट।
रोशनी और अँधेरे का अंतर तो,
समझने की कोशिश करूँ मैं बारम्बार
फिर भी, वत्तफ़ कहाँ से सुलझ लेने।
ओस की बूँदें गिर गयीं थीं घासों पर।
जैसे किसी के नाजुक कपोल पर टपकी है आँसू की छोटी बूँद।
सूख जाती है, इक पल में,
सूरज की हरारत और किसी के स्नेह से।
नमी और गरमी का अंतर तो
समझने की कोशिश तो की मैंने,
वत्तफ़ कहाँ से सुलझ लेने।
आकाश से कभी-कभी गिरते हैं तारे कहीं।
दुबारा नहीं देखा है किसी ने उन्हें,
तेज है उतना, वह झिलमिलाहट।
वत्तफ़ कहाँ से छू लेने।
मिनट-घंटे,दिन-माह जो चलाता है जिंदगी हमारी
ऐसी छोटी बातें दुनिया की,
देखने तक भूल जाती
– वत्सला सौम्या-