कविता

बेटी तुम

तुम हो वीर
है तुम में धीर
साहस का पर्यायवाची
एक शब्द हो तुम।

तुम मेरी आशा
अंतर्मन की भाषा
ह्रदय गंगा से बहते प्रेम की
अविरल धारा हो तुम।

ऊंचा तुम्हारा लक्ष्य
मेहनत में हो दक्ष
आलस्य से कोसों दूर
जीवटता का प्रतीक हो तुम।

आए कितनी बांधा
तुमने लक्ष्य को साधा
मुड़ के पीछे जो ना देखें
बहते जल कि वो धारा हो तुम।

डिगो ना कभी पथ से
हारो ना कठिनाई से
हर कहे मैं तो हारी
जीत का पताका फहराओ तुम।

हो निष्ठा सच्चाई में
मंत्र, सफल जीवन लड़ाई में
छल कपट की दुनिया में
बनो सच की परिभाषा तुम।

आएगा वह दिन भी
ऊंचा होगा मस्तक भी
बनोगे मानव जाति के
सम्मान का एकदिन प्रतीक तुम।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]