कविता- प्रथम किरण
सूर्य की प्रथम रश्मि
शैशव काल में
लुढ़कते कदमों से
चल पड़ती है
बिना गन्तव्य सोचे
कभी तेज
कभी मंद कदमों से
और आ पहुँचती है
वसुधा के आँगन में।
समृद्ध घर की
बेटियों की तरह
देखते ही देखते
समय को पीछे ढकेलकर
किशोरवयी हो जाती है।
क्रान्ति की
अनगिनत सम्भावनाएँ
अदम्य साहस
परिवर्तन की चाह
प्रीति की कोमल लालसा
दु:ख – दर्द को
सोख लेने का जज्बा
समभाव का दृष्टिकोण
जोश में होश
ये सारी विशेषताओं के भरकर
छा जाती है।
महल और झोपड़ी पर
सागर और शैल पर
फूल और काँटों पर
पावस एवं पतझड़ पर
सज्जन एवं दुर्जन पर
कंगाल एवं धनाढ्य पर
सूक्ष्म एवं विराट पर
आच्छादित हो जाती है।
अंधेरे को
कर देती है तितर – बितर
चिड़ियों के परों में
भरती है स्फूर्ति
भोरों को जगा देती है
फूलों को विकसित करती है
शबनम को
आँखों में सजाए
वसुधा और अम्बर के
कण – कण को
कर देती है
किरण मय!
ज्योतिर्मय!!
मंगलमय!!!