सावन में बहारें
हर गुल खोया बुलबुल खोई अनजान सी ये पहचान हुई
सावन में बहारें खुद झूमी पतझड़ में खुद वीरान हुई–!!
कितने बादल छाकर लौटे कितने मेघों ने आह भरी
होठों ने ओस की बूंदों से अपने भीतर की प्यास हरी
इक पल की आस में उम्र मेरी नाजाने क्यों नादान हुई
सावन में बहारें खुद झूमीं पतझड़ में खुद वीरान हुई–!!
ये दर्द कहाँ से उठता है ये पीर कहाँ पे होती है
जख्मों की क्या सीमा रेखा कब तक ये टीस को ढोती है
मरहम है दवा दुआ कोई ये जान के भी अंजान हुई
सावन में बहारे खुद झूमीं पतझड़ में खुद वीरान हुई–!!
सोचा था कभी सावन बनकर हम पास तुम्हारे आएंगे
बरसेंगे बिन मौसम,मौसम को या खुद पर बरसाएंगे
आने वाले तूफानों में लहरें भी रेगिस्तान हुई
सावन में बहारें खुद झूमीं पतझड़ में खुद वीरान हुई–!!
— निराली