गीत/नवगीत

सावन में बहारें

हर गुल खोया बुलबुल खोई अनजान सी ये पहचान हुई
सावन में बहारें खुद झूमी पतझड़ में खुद वीरान हुई–!!

कितने बादल छाकर लौटे कितने मेघों ने आह भरी
होठों ने ओस की बूंदों से अपने भीतर की प्यास हरी
इक पल की आस में उम्र मेरी नाजाने क्यों नादान हुई
सावन में बहारें खुद झूमीं पतझड़ में खुद वीरान हुई–!!

ये दर्द कहाँ से उठता है ये पीर कहाँ पे होती है
जख्मों की क्या सीमा रेखा कब तक ये टीस को ढोती है
मरहम है दवा दुआ कोई ये जान के भी अंजान हुई
सावन में बहारे खुद झूमीं पतझड़ में खुद वीरान हुई–!!

सोचा था कभी सावन बनकर हम पास तुम्हारे आएंगे
बरसेंगे बिन मौसम,मौसम को या खुद पर बरसाएंगे
आने वाले तूफानों में लहरें भी रेगिस्तान हुई
सावन में बहारें खुद झूमीं पतझड़ में खुद वीरान हुई–!!

— निराली

नीरू श्रीवास्तव

शिक्षा-एम.ए.हिन्दी साहित्य,माॅस कम्यूनिकेशन डिप्लोमा साहित्यिक परिचय-स्वतन्त्र टिप्पणीकार,राज एक्सप्रेस समाचार पत्र भोपाल में प्रकाशित सम्पादकीय पृष्ट में प्रकाशित लेख,अग्रज्ञान समाचार पत्र,ज्ञान सबेरा समाचार पत्र शाॅहजहाॅपुर,इडियाॅ फास्ट न्यूज,हिनदुस्तान दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित कविताये एवं लेख। 9ए/8 विजय नगर कानपुर - 208005