“कुछ पता नहीं”
इंसान तो दिखते हैं इंसानियत का कुछ पता नहीं
मासूम तो लगते हैं मासूमियत का कुछ पता नहीं
समाज सेवक उग आये हैं गलियों और मोहल्लों में
दिल के अंदर क्या है इनके नीयत का कुछ पता नहीं
भीड़ का क्या है भीड़ तो सिर्फ जज्बाती होती है
किसके बहकाने से बहकेगी जम्हूरियत का कुछ पता नहीं
कल तक हाथ मिलाने वाले छुरा पीठ में घोपते हैं
किस ओर हवा बह जाएगी सियासत का कुछ पता नहीं
ज्ञान की बातें करते हैं सब अच्छी बातें करते हैं
मौका देख कब जग जाएगी हैवानियत का कुछ पता नहीं