कविता
रोज एक दिन नया खरीद लेती हूं शाम बेचकर
रात भर उसमें जाने कितने रंग भरती हूं
फिर उतार देती हूं उसे आंखों में
ओर पलकें कस कर बन्द कर लेती हूं
इस डर से की रंग कही फैल ना जाये
पलकों के चिलमन को धीरे धीरे खोलकर
होंठो पर मुस्कुराहट लिए देखती हूं तो
आंखों की कोर पर अटके रंग
कब आँसू के साथ बह गए पता ही नही चला
ओर सुबह वही बेरंग ओर उदास
बस कुछ इस तरह
ना सुबह जी पाती हूँ ना शाम !!