पलको तले न जाने कितने ख्वाब पल रहे थे
पलको तले न जाने कितने ख्वाब पल रहे थें
दिल मे न जाने कितने अरमान मचल रहे थें
नित्य आगे बढ़ने की होड़ में
सबको चुप चाप समेटे बढ़ती जा रही थी
और हाँ वह सुन्दर थी सुशील थी
प्रिय मानमोहिनी बेबाक सी चंचल थी
कुछ करने को स्वतंत्र थी
अपने आप में मजबूत और अडिग थी
हो भी क्यो नही क्योकि
कुछ अलग करने को ठान रखी थी
लेकिन उसे क्या पता
उसकी ये सब आदतें
किसी की आँखो मे खटक रहे थे
वही हुआ जो होना था
एक दिन चढ़ गयी मानचलो के हत्थे
कर दिए तार तार उसकी जिंदगी को
जिन पलको तले ख्वाब पल रहे थे
बह चले आँसू के सहारे
फीर गए सभी अरमानों पर पानी
फिर भी वह हार नहीं मानी
तेजाब से तो बस जिस्म जले थे
अंदर तो वही जोश और उमंग पल रहे थे
जीवन मौत से जूझ रही थी
फिर भी हैवानो को सबक सिखाने के लिए
फिर से लड़ने को तैयार थी।
निवेदिता चतुर्वेदी ‘निव्या’