गज़ल
चलो हम मोम की मानिंद पिघल के देखते हैं
इश्क की आग में इक बार जल के देखते हैं
घर में बैठकर दुनिया की खबर कैसे लगे
आओ घर से ज़रा बाहर निकल के देखते हैं
कानों सुनी बात पे जायज़ नहीं यकीं करना
खुद मौका-ए-वारदात पे चल के देखते हैं
मेरा मनाना उनका रूठना हो गया बहुत
अब कहानी के किरदार बदल के देखते हैं
चेहरा उनको क्या अपना नज़र नहीं आता
जब अशआर वो मेरी गज़ल के देखते हैं
— भरत मल्होत्रा