गज़ल
मैंने गर पी ही नहीं तो ये खुमारी कैसे
दिल में जब गम नहीं तो हो गया भारी कैसे
मैं तो खुद को समझता था अक्लमंद बहुत
लग गई इश्क की फिर मुझको बीमारी कैसे
बीत जाता है पूरा दिन इसी उम्मीद में बस
मुझसे कोई पूछे शब-ए-हिज्र गुज़ारी कैसे
तू जो मसरूफ हो गया है औरों में इतना
मुलाकातों का सिलसिला रहे जारी कैसे
मैं भी आया था महफिल में अर्ज़ करने कुछ
इतने लोगों में पर आए मेरी बारी कैसे
— भरत मल्होत्रा