गज़ल
मैंने हाल-ए-दिल जब भी उसे सच-सच सुनाया है
मेरी तकलीफ पर ज़ालिम हमेशा मुस्कुराया है
याद आ गए एक पल में मुझे सारे गुनाह अपने
किसी मय्यत का जब कंधों पे मैंने बोझ उठाया है
दिखाएँ किसको अब तुम्ही कहो ये ज़ख्म सीने के
गैरों से कहीं ज्यादा तो अपनों ने सताया है
सुकून-ओ-चैन की खातिर मजहब सारे बने थे पर
सियासत ने इन्हीं के नाम पर दंगा कराया है
ले डूबीं हैं मज़लूमों की आहें उस तवंगर को
ताकत के नशे में जिसने उनका दिल दुखाया है
— भरत मल्होत्रा