हिंदी की बिंदी
हिंदी की बिंदी लगे बिना, पूरा श्रृंगार नही होगा।
बिन हिंदी के भारत कभी वैभवसम्पन्न नही होगा।
अंग्रेजियत को दूर करो, निज भाषा को अपनाओ,
स्वाभिमान से उठो भरत पुत्र, हिंदी को अपनाओ।
परतन्त्रता को दूर भगाओ, हिंदुस्थान की माटी से,
हिंदी की वैज्ञानिकता लाओ भारत की परिपाटी से।
तंत्र स्वदेशी, मन्त्र स्वदेशी, भाषा, भजन स्वदेशी हो,
वस्त्र स्वदेशी, पर्व स्वदेशी, भोजन, भ्रमण स्वदेशी हो।
सागर सी गहरी है हिंदी, पर्वत शिखरों सी ऊंची है,
रस, छंद, अलंकारों की भाषा, तुलसी की चौपाई है।
हिंदी है प्रेम की भाषा, भारत के नवोत्थान की भाषा,
हिंदी जन-जन की अभिलाषा, हिंदी हर घर की भाषा।
हिंदी में तिथि, त्यौहार मनाएं, हिंदी में हस्ताक्षर हों,
हिंदी में परिवार की बोली, हिंदी में अभिवादन हो।
डैड, मॉम, अंटी, अंकल, सिस्टर, ब्रदर सब बन्द करो,
भारतीय शब्दों को अपनाओ, हिंदी की जयकार करो।
— बालभास्कर मिश्र, लखनऊ