कहानी – मलंगी की मछलियां
मुसलाधार बारिश रात भर होती रही, शिवालिक पहाड़ियों के बीच बहती ब्यास के किनारे बसे गांव के लोग अभी अपने घरों के अंदर जकड़े थे। गांव नदी के किनारे कोई दो कोह के फासले पर बसा हुआ है, यह इकलौता गांव नहीं नदी के उद्गम से लेकर कई गांव बसे हैं । गांव की कुछ ज़मीने तो नदी के आर-पार थी जिन्हें वे पुरखों के समय से जोतते आए हैं, कभी धान लगाते, कभी मक्की तो कभी गेहंू, पर धान तभी लगते जब नदी को पार किया जा सके। कुछ ने तो अपनी किश्तियां भी रखी हैं, गांव में मुख्यतः मल्लाह लोग हैं और कुछ झीर हैं जो जब दिल करे तो नदी से मछलियां पकड़ते और दिल करे तो नदी में डूबकियां लगा-लगा कर नहाते।
गांव के पशु नदी के किनारे खुले मैदानों में चुगते हुए दूर तक निकल जाते ओर शाम को हांक कर कोई उन्हें घरों की ओर मोड़ देता। इसी गांव में एक सबसे अनोखा व्यक्ति रहता है जिसे सभी मलंगी कहते हैं मस्त-मलंग, पूरा दिन नदी में मछलियों को पकड़ने के लिए जाल लेकर दौडे़ रहता। पर वह फक्कड़ किस्म का आदमी नहीं है। शादी हुई है पर बच्चे नहीं हैं। घर की जिम्मेदारियां भी वह जानता है, पर उसके कई किस्सों से गांव वाले अब तक वाकिफ हो गए हैं। इस मल्लाहों के गांव को ख्वाजा पीर ने एक और वरदान बक्शा है कि नदी पार करने का पुराना पत्तन भी वहीं है। बस कुछ तो आगुतकों को नदी पार करवाते, कुछ मछलियां पकड़ते, कुछ खेती करते और कुछ कस्बे में काम करते। मल्लाहों ने नदी पार करवाने के लिए बारी-बारी अपने नंबर लगा लिए थे। बरसात में जिसकी हिम्मत हो वह ही नदी में किश्ती डाले। बरसात का समय था न कोई पत्तन को गया और न ही उस ओर से आ सकता था। रात भर वर्षा हुई थी।
हल्की बूंदा बांदी अभी भी हो रही थी। मलंगी घर में बैठ नहीं सकता, उसका पूरा जिस्म गर्दन कटे मुर्गे की तरह फड़फड़ाने लगा था। यहां रहेगा तो फिर उसकी पत्नी बसंतो की कच-कच ही रहेगी, वह तो आराम से बीड़ी भी नहीं पीने देती, बैठना तो बड़े दूर की बात है, गाय के लिए घास तो उसने पिछले से पिछले दिन सुबह ही काट लाया था। एक गाय भला कितना खाएगी, अभी बारिश में भीगे हरे घास को काट लाना भी मुश्किल है, अतः ये सारी बातें उसे घर से फुर्र होने को उकसाने लगी थी।
बसंतो स्टील के गिलास में चाय ले आई और उसके हाथ में थमाते ही बोल पड़ी, बरसात ने तो आज हद कर दी है, देखो तो खेतों में कितना पानी भर आया है, अच्छा चाय पी कर गाय का गोबर फैंक देना, एक ही डल्ल ‘गौबर डालने का बांस का वर्तन’ है और मैं तो बस गाय को सूखा घास ही डालूंगी, तुम जरा नाव को तो देख आना, कहीं दरिया उसे भी न बहा ले जाए आखिर उसी से तो हमारा पेट पलता है।’’ बस मलंगी की ख्वाजा ने सुन ली थी। ‘‘हां, बसंतो! मैं तो बस जाने ही वाला था, दो चार बार जाल भी फैंक आता हूं, शाम की तरकारी का कुछ बन जाए।’’ मछली की खुशबू के अहसास से बसंतो के चेहरे पर रौनक लौट आई और उसकी कर्र-कर्र बरसात में बहने लगी।
मलंगी ने वक्त जाया न किया, कंधे पर जाल और सिर पर गोबर की डल्ल लिए वह खेतों की ओर निकल गया। आज दिन शुभ रहेगा, वह मन ही मन सोचते हुए चल रहा था। मलंगी के बारे में कुछ बता दें, जब कभी भी मलंगी जवान हुआ था तो उसकी मां चल बसी थी, बाप तो तभी चल बसा था जब वह अभी पत्तन में बाप संग चप्पू चलाना सीखता था, दो भाईयों के साथ ही एक ही छप्पर में रहा, और दूसरा घर उसका बस दरिया ही होता था, सवारी मिली तो मिली पर ताश के पत्तों का वह मास्टर था। वक्त से पहले जवानी न बीत जाए तो उसकी भाभी ने अपनी सहेली की लड़की से ब्याह दिया था, बड़ी सेवा करता था वह अपनी भाभी की, कोई ऐसा दिन न था जब मलंगी मछली न लाता हो दरिया से, साथ में पतन में किश्ती चलाता ओर दिल करे तो छोटी कश्ती में बैठकर जी भर कर मछलियां पकड़ता। दोनों भाईयों ने जब उसकी शादी कर दी तो फिर पुराने गोड ‘पशुओं का कमरा’ को घर बना दिया उसका, खेतों का बंटवारा भी समय रहते कर दिया।
सुबह गांव के कुछ लोग पत्तन वाले रास्ते पर बैठे जानवरों को हरा घास लाने की ही तैयारी में निकले थे और एक दूसरे से भारी बारिश की चर्चा करते पत्तन के रास्ते वाले टियाले पर बीड़ियां सुलगा रहे थे, कि उन्हें मलंगी तेज कदमों से आता दिखाई दे रहा था। कंधे पर मछलियों को पकड़ने वाला जाल था। ‘‘कहां जा रहे हो मलंगी! बरसात में तोे उन बेचारियों को छोड़ देना था। आओ बीड़ी सुलगा लो।’’ गांव के उसके हम उम्र कमल ने बात छेड़ी। ‘‘नहीं ! नहीं! आज नदी उफान पर है मछलियां किनारों की ओर आई होंगी, आज तो बीड़ी पीने का टैम नहीं मेरे पास।’’
‘‘अरे छोड़ परे, वे कहां भागंेगी, तेरे ही जाल में फंसेगी और देखना अभी पानी बढ़ रहा है, तू कहीं मछलियों के चक्कर में दरिया में गोते न खा आए।’’
‘‘अरे शुभ बोलो’’, साथ में खड़ा राधे राम बोला। मलंगी जब अपने काम पर चलता है तो फिर इधर-उधर नहीं देखता और बस मलंगी तित्तर हो चुका था वहां से सचमुच उसके पास टैम नहीं था। दरिया के रास्ते की उतराई उतरने लगा तो सचमुच ही दरिया प्रचंड हो गया था। पहले से कई लोग उठती भयानक लहरांे को देख रहे थे। मलंगी ने अपना रास्ता बदल लिया और वह नदी के ऊपर की ओर सरकंडों के बीच से चलता गया। सरकंडे कोई 10-15 फुट ऊंचे हो गए थे, कुछ सरकंडों को दरिया के पानी ने ज़मीन पर लिटा दिया था। रात को पानी चहुं ओर से निकला था। इसका अदंाजा साफ निशान देख कर हो रहा था। दूर दरिया के दोनों ओर सफेद बादलों के झुड चहंु ओर फैले थे। कुछ आवारा किस्म के दरिया के किनारों को छू रहे थे। वह एक कोने में बैठ गया और कुछ सोचने लगा और उफनती लहरों को एक टक देखने लगा जो किनारों से लहरें टकरा रही थी, कहीं झाड़ झगांड़ बहता जा रहा था।
फिर वह उठा और नदी की धारा के करीब पहंुचा और एक डंडे को ठीक पानी के छोर पर गाड़ आया, फिर थोड़ी दूरी पर बैठ कर बीड़ी सुलगाने लगा। फिर बड़ी देर पानी की ओर देखता रहा। फिर एक दम से उठा और बुदबुदाया, ‘‘कम हो रहा हैै दरिया का पानी, दो चार बार जाल फैंक ही लेता हूं नदी में झाड झगाड़ भी आना कम हो गया है।’’ असल में उसे अपने जाल की चिंता थी। नदी में बहते झाड़ झगाड,़ खरपतवार, लकड़ी के लठ्ठे उसके जाल को खराब कर सकते थे, इसलिए वह अभी जाल नहीं फैंकना चाहता था। आखिर उसने जाल फैंक ही दिया। खाली का खाली। थोड़ा किनारे-किनारे आगे बढ़ा और कोई फुट भर पानी में घुसकर फिर से जाल फैंक दिया, फिर खाली। उसने जाल को खींचकर दो-तीन गालियां बकीं- ‘‘सारी मछियां गई कुतां! अज तां हद होई गई!’’ जिस मंलगी का जाल कभी खाली हाथ नहीं लौटता था, आज वही जाल बार-बार खाली लौट रहा था। पानी गंदला था। बह बुदबुदाया, ‘‘अच्छा छोड़ो, रोड़ों के ऊपर चलता हूं, रोड़ों के नीचे गहरी कंदरा में मछलियां आराम से रहती है, तेज धारा में उन्हें थोड़ी तकलीफ होती है।’’ वह फिर किनारे-किनारे आगे बढ़ता गया। बड़े रोड़े आ चुके थे। कोई 50 फुट उंचे तो हैं, वह एक तरफ से होता हुआ छोटे रोडे़ की ओर चढ़ गया।
जाल की रस्सी को दुरस्त करके रोड़े की एक तरफ से वह थोड़ा नीचे की ओर उतरा ताकि पानी की सतह के करीब जा सके। उसने जाल उठाया और जाल पूरी तरह से पानी में समा गया। अरे! ये क्या? उसके हाथ से जाल के साथ बंधी रस्सी छूट गई थी। जाल की रस्सी पानी में बहती नजर आई। मलंगी को एक दम से बस छलांग ही सूझी और उसने गहरे पानी में जाल के लिए छलांग लगा दी। मटमैले पानी में वह दूर तक बहता गया, कभी सिर पानी के अंदर तो कभी सिर पानी के बाहर।
वह किनारे तो लग गया और साथ में जिस जाल के लिए उसने जी जान लगाई थी, वह जाल उसके हाथ में आ गया था। जैसे ही किनारे की रेत पर उसके पांव पड़े वह सीधा होकर इधर उधर देखने लगा, कोई आस पास नहीं था। दूर तक धुंध फैली थी, उसने पहले तो अपने शरीर को कई सांसे उपहार में दी फिर अपने कपड़े खोले, सिर्फ जांगिए को उसने अपने कुरते से पहले निचैड़ा।
कुरते को जांगिए के इर्द गिर्द लपेटा, सिर्फ उसको देखने के लिए दूर संरकंडों का झुड़ था, उफनता दरिया था और दूर तक फैली धुंध थी। अब आगे वह क्या करे, ऐसे ही खाली हाथ लौटा तो….., पर वह खाली हाथ न था उसने अपनी जिंदगी को अपनी किस्मत व ख्वाजा की मेहरबानी से अपनी खाली झोले में डाल लिया था। यह वही झोला था जो उसने बड़े सप्पड़ पर पत्थर से ढक कर रखा था। अब यह तो दो- चार मछलियां ही हाथ आ जाएं या फिर जो जिंदगी उसे वापिस मिल गई है उसी से काम चला लिया जाए पर उसकी निम्न लालसा ने उसे आगे बढ़ाया।
इस बार वह नदी की धारा के साथ चलने लगा, पर अपना खाली झोला ‘ कपड़े को सिल कर बना थैला’ उसने बड़े पत्थर से उठा कर गले में डाल लिया था। नीचे सरकंडांे का एक पूरा संसार था और उसे सरकंडों को पार करके दरिया के किनारे-किनारे चलना था ताकि वह कुछ उथली जगह पर अपना जाल फैंक सके। उसके मन में अभी भी लहरों का वह शोर था जो उसने कुछ पल पहले अपने पानी में डूबे कानों से सुना था। बस एक बार अगर उसे कोई देख लेता तो फिर पूरे गांव में उसकी चर्चा रहती, बस इसी बात का उसे मलाल हो रहा था पर दूसरे ही पल वह बच निकला है इसका गरूर उसके मन में छाने लगता। कभी वह डर जो उसने लहरों में डूबने से बचने के बीच जीया था, वह भी साथ-साथ चल रहा था। कभी उसे अपनी घरवाली का ख्याल आता कि वह विध्वा हो जाती अगर वह बच नही पाता, मलंगी के मन में बसंतो के लिए बड़ा प्रेम मन में भर गया था। वैसे रात दिन तो बसंतो किट किट करती फिरती है। कभी उसे घर वाला न समझती है, जो मुंह में आए बस बके जाती है कभी मछली को पत्त ‘चावल’ के साथ खाकर थोड़ा शांत होती है पर फिर सुबह उसका वही सौतेला रूप उभर आता है, पर है अच्छी, बेचारी कैसे रोती, उसे तो गालियों के सिवा कुछ आता ही नहीं है, रोना तो उसे कौन सिखाता, पर एक बात है अपने घरवाले के खिलाफ एक भी शब्द बोलने की हिम्मत बसंतो से कोई नहीं कर सकता है। एक बार उसके कान में अपने घरवाले की कोई बुराई की बात पड़ गई तो समझो उस बेचारे के घर के पास से आते जाते दस-दस मण की गालियां बेखौफ निकालती है। कोई ये नहीं समझ पाता कि वह किसको गालियां बक रही है, वही दिन होता जब इस घरवाले को वह थोड़ा ईज्जत से बुलाती वर्ना मलंगी का क्या हाल होता है यह तो वही जाने।
बहरहाल मलंगी सरफड़ों ‘सरकंडांे’ को पार करके धारा के साथ-साथ चलता रहा, दरिया एक ओर मुड़ कर इकट्ठा हो गया था, गहराई अब उसे डरा नहीं सकती थी। उसने दो-तीन बार फिर से जाल फैंका, कुछ हाथ न लगा। आगे बढ़ा तो आगे दरिया फिर फैल गया था और बाढ़ से आगे चहुं ओर चिकनी मिट्टी कहीं-कहीं उभरे सरकंडों के बीच फैली थी। अगर आगे बढ़ना है तो इसी चिकनी मिट्टी मतलब पणा जो दरिया ने एक ओर छोड़ दिया था उसे पार करना था। उसने अपने प्लास्टिक के जूते उतारे और चलता गया। पैरों के निशान उभरने लगे, आगे सरकड़ों में एक बड़ा पत्थर था जिसके साथ-साथ दरिया की धारा बह रही थी और बस उसने उसी बड़े पत्थर को निशाना बनाया।
अब वह इसी पत्थर के साथ बहते पानी में जाल फैंकेगा। पत्थर के पास पहुंचते ही उसने जाल धारा की ओर फैंक दिया फिर धीरे-धीरे उसे इक्ट्ठा किया। वहा एक साथ ही दो मछलियां उसके जाल में फस गईं। ‘‘अब आएगा मज़ा,’’ उसने मन ही मन सोचा, ‘‘मलंगी कभी खाली हाथ नहीं लौटता है।’’ ऊपर काले बादलों ने भी अपनी प्रसन्नता जाहिर की। मलंगी ने तीन-चार बार फिर जाल फैंका और इस बार उसने अपना झोला आखिर भर ही लिया। ‘‘आज रात का इंतजाम तो हो गया, बस कोई रास्ते में मांगने वाला न मिल जाए,’’ वह मन ही मन फिर सोचता रहा। बसंतों के हाथ में वह जाते ही झोला रख देगा वह चाहे एक पल भर के लिए उसकी तरफ मुस्कुराहट से तो देखेगी, वरना उसका वही भनभनाता चेहरा उसको खाली हाथ देखकर दस-बारा गालियां देने को तैयार होगा।
झोला भरा देखकर मलंगी के मन में प्रसन्नता की लहर उठी, बस जैसे ही वह रोड़े की पिछली और को हुआ, उसकी सांसे रुक गई, भरी बरसात में चेहरे पर पसीने की बूंदे उभर आई। रोड़े के निचली ओर रेत के थोड़े उभार पर थिथले पानी में चीथड़ों में लिपटी एक लाश सीधे मुंह पड़ी थी। मलंगी लाश को देखकर जड़ हो चुका था। उसका जाल हाथ से छूट गया था और कंधे पर लटका झोला सरककर उसके बाजु में फस गया था। उसने पहले झोला और जाल रोडे़ पर टिका दिए।
‘‘हे ख्वाजा पीर! ये क्या हो गया ? कौन भला मानस माणु तेरी माया में फसकर अपनी जान गंवा बैठा। अब मैं क्या करुं?’’
मलंगी के चेहरे का रंग पीला पड़ चुका था, शोक की लहरें उसके मस्तिष्क में दौड़ने लगी। आखिर वह आज खुद ही किसी जाल में फंस गया था, उसकी मरी मछलियों ने उसे श्राप दे दिया था, इस मुसीबत में फसने का। वह थोड़ा लाश की ओर झुका, उसने उस लाश पर लगे मामूली खरपतवार के गुच्छों को हटाया और ध्यान से देखने लगा। उसने लाश के पहने कपड़ों को टटोलना चाहा पर उसे किसी ने रोक लिया, शायद ये बसंतो ही होगी जिसने रोका था, ‘‘अरे पागल आदमी! तुम्हें पता नहीं, पुलिस हाथांे के निशान भी देखती है और तू यहां डाक्टर बना फिर रहा है, दूर हट जा।’’ बात सही ही थी बसंतो की, मलंगी कोई दूर फुट भर तो हो गया पर उसने लाश को छोड़ा नहीं, और न भागने के बारे में सोचा। मूसलाधार बारिश में भी मलंगी बड़ी देर वहां लाश के पास बैठा रहा, पानी बढ़ने लगा था, वह दो टूक लाश की ओर देखे जा रहा था, उसकी नजरें कभी उल्लू की तरह इधर-उधर घूम रही थी, और साथ में टांगे कांप रही थी।
उसके दिमाग में हजारों बातें दौड़ने लगी, कोई और होता तो झाड़ो-झगाड़ों में से छुपता छिपाता घर दौड़ जाता, या फिर सभी को बताने दौड़ चलता। मलंगी ने भी बहुत सी बातें सोचने शुरू कर दी, वह लाश को नज़रंे छुपाते देखे जा रहा था। ख्वाजा को याद करता जा रहा था- ‘‘बस इस बार बचा ले मेरे पीर, अब तुम ही बताओ कि मैं क्या करुं? इसे यहीं छोड़ दूं तो मेरा मन नहीं मान रहा, कोई मेरे बाद आएगा तो उसकी नजर भी पड़ेगी। मौसम साफ हो गया तो चील कोवों ने ऊपर मंडराना शुरू हो जाना है। पता नहीं इस अंजान लाश का क्या होगा, कौन होगा! कोई हमारी तरह ही मल्लाह होगा, जैसे मैं बच गया आज बहते बहते, पर ये बेचारा न बच पाया होगा। कोई मुसाफिर होगा जो नदी के माया जाल में आ कर बह गया होगा। अच्छा इसका पहनावा ही देख लेता हूं तभी इसकी जात का पता चलेगा।’’ पहनावा क्या खाक था। वह तो चिथडांे में लिपटा था। मलंगी का शरीर कांपते जा रहा था। ऊपर बरसात ने चहुं ओर गहरी धुंध फैला दी थी। मलंगी इस धुंध को ईश्वरीय संदेश समझ लाश का निरिक्षण परीक्षण करने लगा था। करीब पहुंचकर उसनने देखा कि लाश के शरीर पर जगह-जगह बड़े-बड़े नीले निशान पडे़ थे और हर जगह बडे़-बड़े जख्मों के निशान थे, उसका मन किया कि वह हाथ से लाश को एक बार पलट दे पर उसकी हिम्मत न हुई, हिम्मत कैसी होती अभी लाश फूली नहीं थी, फूलती तो तब जब यह पानी में डूबी रहती। अगर कुछ पानी भरा भी होता तो वह नदी के रोड़ों से टकराकर बाहर निकल गया था।
उसने देखा कि लाश चिथड़ंे बन चुके पेंट और शर्ट डाली थी। लाश के साथ नदी की वनस्पतियां भी लिपटी थी। चेहरा पूरी से सूजा था, और चोटों के गहरे धब्बे पूरे शरीर पर देखे जा सकते थे। लाश की आंखे बंद थी पर पानी उसकी हड्डियों में नहीं घुसा था, क्योंकि वह शायद रात को डूब कर फिर जल्दी ही किनारे लग गया था। उसके चेहरे पर दाड़ी थी और वह काफी लंबा चैड़ा व्यक्ति था। न तो उसमें नदी की गंध थी और न ही वह अभी सड़ना शुरू हुआ था। उसकी त्वचा नदी में धुल- धुल कर साफ सफेद हो गई थी।
मंलगी उसके चिथड़ांे में छिपी जेबों से उसका नाम पता कोई कागज पत्र ढूंढना चाहता था, पर उसकी हिम्मत नहीं हो पाई, अगर उसके हाथ लाश को छू गए और कल को कोई पुलिस वाला ….बस …बस वह वही रुक गया। बसंतो भी तो बार- बार उसे रोक रही थी। बस वह अब क्या करे, ऊपर छम-छम बारिश हो रही थी। उसका पूरा शरीर पहले से ही कांप रहा था। मलंगी को यह तो अब यहां से खिसक जाना था, यह फिर भाग कर गांव वालों को बताना था और यह काम उसे जल्दी करना था। वह बस दौड़ने को हुआ तो उसे बसंतो का ख्याल आ गया। काश! वह बसंतो से पूछ पाता और हां! पुलिस के आने पर सिर्फ वही तो गवाह होगा, क्योंकि वही तो था सिर्फ दरिया में मछलियां पकड़ने वाला, वो भी इतनी भयंकर बरसात में।
बसंतो कहेगी कि हर मुसीबत तेरे ही को पहले कैसे ढूंढती है, किसने कहा था, उसे मछलियों के लिए भटकने को अगर कहीं उसे ही पुलिस ने धर धबोचा तो फिर बसंतो का क्या होगा, उसकी तो कोई औलाद भी नही है, कहां जेल में सडे़गा और बसंतो उसके इंतजार में हर पल रोएगी। इस वक्त उसका बंसतो से प्यार अथाह सागर की तरह गहरा हो गया था वरना ये तो सब को पता है कि बसंतो कभी ढंग से उससे बात भी नहीं करती हैं। बस औलाद न होने की वजह से वह ऐसी हो गई है अब वह बेचारी करे भी क्या , उसकी किस्मत ही कुछ ऐसी है, एक ओर जहां बसंतो के नाम से मलंगी की टांगे कांपने लगती हैं वहीं मलंगी अब बसंतो और अपने प्यार की गहरी झील की तहें नापने में लगा था। उसका मन सोच रहा था कि वह जल्दी से दौड़ कर जाए और बसंतो से सारा मसला बता आए और फिर इस लाश के बारे में कोई हल ढूंढे पर अगर कोई ऐसी-वैसी बात न हो जाए तो फिर …….
ऊपर छम-छम बारिश ने उसकी आंखें व सोच धंुधली कर दी थी और मलंगी को कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। कोई अगर गांव का आदमी इस सुनसान इलाके के पास आ भी जाए, तो उसकी सारी समस्या को कोई हल निकल सकता है। मलंगी ने अपना परना सिर पर ओड़ लिया और अकड़ू बन बडे़ पत्थरों के पास बैठ गया। वह चाहकर उठ भी नहीं सकता था। उसने सोचा-वह बह कर आया व्यक्ति अकेला कैसे पड़ा रहेगा, आखिर ख्वाजा ने सबसे पहले इस मलंगी को ही भेजा है इस लाश के पास। यह सब ख्वाजा की मर्जी है वर्ना उसके दिमाग में आज सुबह ही मछलियों का ख्याल क्यों आ गया। वैसे भी बरसात के दिनों में तो कोई मछलियों को पकड़ने निकलता नहीं है, वही क्यों निकला, यह सब ख्वाजा पीर की मर्जी थी। पर हे ख्वाजा पीर! अब मुझे आगे का रास्ता भी तो दिखा दो।
परना सिर पर ओढ़े मलंगी ने फैसला कर लिया कि वह चुपचाप घर की ओर दौडे़गा और जो सलाह बसंतो देगी, उसके बाद ही कुछ सोच समझ कर पूरे गांव को बात बताई जाएगी। जाल कंधे पर उठाया फिर से नज़र लाश पर डाली और मछलियोें से भरा झोला भी उठा लिया आखिर अब उन्हें क्यों छोड़ेगा, इन्हीं की खातिर तो वह इस मुसीबत में फंसा है। इस बार रास्ता उसने चुनना था इसलिए धार की दूसरी तरफ से चढ़ने का फैंसला लिया, सप्पड़ों पर फिसलन को बड़ी मुश्किल से लांघते हुए वह दो-तीन बार तो फिसल भी गया पर उसे चुपचाप बिना किसी की नज़रों में आए घर पहुंचना था। उसका मन कह रहा था कि अब बस बसंतो, तुम ही मेरी जिं़दगी में आई इस मुसीबत से पार लगा सकती है बस ख्वाजा के वास्ते घर में ही होना, वरना बड़ी मुश्किल हो जाएगी, आगे मलंगी ने खैरों के जंगल को पार किया, आंखें उल्लू की तरह इधर उधर दौड़ाता रहा, पर बारिश की धुंध में सिर्फ उसे अपना आप ही दिख रहा था और दिख रहा था अपना डर।
छमा-छम बारिश में वह सीधा अपने घर की ओर दोड़ा, उसे ऐसा लगा कि अभी तक रास्ते में कोई न मिला और न ही शायद किसी ने उसे देखा होगा, पर घर के दरवाजे पर चिटकनी लगी देख कर उसे फिर से पसीने आने लगे। जितना बसंतो के लिए वह इस वक्त तड़फा था शायद इतना तो शादी के वक्त के बाद पहली मुलाकात के लिए भी नहीं तड़फा होगा। जाल खूंटे पर टांगा और मछलियों का झोला कोने में रखकर उसने झट से कपड़े बदले और छाता उठाने को हुआ, पर गांव में हर घर में बसंतो को ढू़ढेगा तो समझो गांव वालों का शक यकीन में बदल जाएगा कि कुछ तो गड़बड़ हो चुकी है, जिस मलंगी को हमेशा बसंतो ढूंढती थी, उसे आज मलंगी ढूंढ रहा है, वह भी भरी बरसात में, उसके कदम रुक गए, वर्ना अभी अनर्थ हो जाना था। शरीर कांप तो रहा था बस उसने चुल्ह में घास फूंस लगा दिया और आग सुलगा ली, बीड़ी के दो-चार कश भी मार लिए, यही बीड़ी सुबह से उसके हाथ नहीं लगी थी और जो थी वह कब की भीग कर सवाह हो गई थी।
बस अब बसंतो का इंतजार था, उसने दरवाजे पर टकटकी लगा ली थी कि बस अब आई कि अब आई, उधर मन फिर से दरिया की ओर जा रहा था, वह अकेली लाश जैसे उसी का इंतजार कर रही होगी कि बस मलंगी तू जो फैसला करेगा, उस लाश का मुकद्दर उसी से लिखा जाएगा, वर्ना इस सुनसान जगह पर उसे अभी तक कोई नहीं मिला है, इधर मलंगी को जैसे इस लाश की इतनी फिक्र थी कि इतनी फिक्र तो उसे इस बात की भी नहीं हुई थी कि उसके कोई बच्चा अभी तक नहीं हुआ है चाहे शादी के 20 वर्ष हो चुके है और अब तो शायद उसने इस ओर सोचा भी नहीं है, पर लाश को वह किसी किनारे पर लगा कर ही छोड़ेगा। बाहर छम-छम बारिश मूसलाधार बारिश में बदल चुकी थी और बसंतो की कोई खबर न थी, अब वह अगर नहीं आई तो फिर उसे छाता लेकर उसे घर-घर ढूंढना ही पडे़गा, पर शक का डर उसे अजगर की भांती अपनी कुंडली में जकड़ रहा था।
इतनी देर में उसने अंदर से बीड़ियों का सूखा बंडल ढूंढ कर दो-चार बीड़ियां दरवाजे की देहली पर बैठ कर उड़ा दी थी। उसकी नजरें बारिश को चीरती हुई दूर तक बिखरी धुंध में बसंतो के आने की रोशनी ढूंढती जा रही थी। पर छम-छम बारिश हे भगवान उधर दरिया में पानी फिर से बढ़ चुका होगा, ये क्या हो गया बंसतो को, हमेशा तो मेरे सिर के ऊपर मंडराती रहती है और अब मैं उसके लिए तड़फ रहा हूं तो वह पता नहीं कहां रुक गई है। हे ख्वाजा पीर! उसे बस अब घर भेज दे, उसके बिना मेरे मन की हालत बिगड़ती जा रही है। इससे तो अच्छा था कि मैं जाल के साथ बह जाता और फिर इस खबर के पहुंचते ही बसंतो एक दम घर की ओर दौड़ती और अपनी छाती पीटती।
मलंगी इस वक्त पर कटे मुर्गे की तरह छटपटा रहा था। उधर बारिश मुसलाधार रूप में बड़ी देर से हो रही थी। मलंगी ने आखिर फैसला कर लिया कि वह बसंतो को ढूंढने निकल पडे़गा पर फिर जैसे उसके कदमों को उसके शक के डर में जकड़ लिया। उसने छतरी उठा ली थी। एकदम से लहर उठी कि जिस लाश के बारे में तू बसंतो से विचार विर्मश करेगा क्या वह अभी इतनी तेज बारिश में पानी बढ़ने से फिर से बह न गई हो। बस मलंगी ने गहरी धुंध व मूसलाधार बारिश का फायदा उठाकर फिर से दरिया की ओर कदम नाप लिए। वह तेज कदमों से चलता रहा। छतरी मानों उसे बारिश से बचा नहीं उसके कदमों को रोक रही थी।
उसने छतरी बंद करके फिर से मक्की के खेतों के बीच से दौड़ लगा दी, कहीं पैर ज़मीन में धंस गए, पर उसने जूते हाथों में पकड़कर बस मक्की के टिल्ले को पार किया और फिर से उसी रास्ते को पकड़ा जिस पर कोई इंसान कम ही जाता है। कई बार फिसलते- फिसलते बचा पर वह आखिर दौड़ता रहा। ऊपर दरिया के उपर चहुं ओर गहरी धुंध बारिश में इधर उधर भटक रही थी उसे दरिया दिखाई नहीं दे रहा था। बीच-बीच में बादलों की गड़गड़ाहट उसके सिर पर ढोल नगाड़ांे की तरह नाच रही थी। गहरी उतराई उतरते ही वह दरिया के किनारे की रेतीली ज़मीन पर पहुंच गया था, फिर सरकंडों का झाड़-झगाड़ और सीधा ऊपर की ओर हो लिया, उसकी पहली नज़र दरिया के पानी के प्रवाह पर जा रही थी, पर धुंध में वह कुछ देख नहीं पा रहा था पर जैसे ही वह बस दरिया के किनारे पहुंचा सरकंडों को लांघ कर हे ख्वाजा पीर दरिया का पानी तो किनारों के संरकड़ों तक पहुंच रहा है, अरे कहीं बहा हुआ आदमी कहीं फिर से बह तो नहीं गया होगा, वह बस पानी के किनारे किनारे भागा, आगे उसके पैर पणे ‘दलदल’ में फंस गए पर वह फिर भागा, दरिया सब निगल चुका था। बहता हुआ आदमी फिर से आगे बह गया था। मलंगी बाड़ में उतर गया, उस पत्थर को निशान मानकर जिस पत्थर को वह बहुत देर पहले उसे बहे व्यक्ति का स्थान समझ कर छोड़ गया था। आगे दरिया का बहाव बहुत तेज था, पत्थर लगभग आधा पानी से डूब गया था, ये वही पत्थर था जिसके पास उसे वह लाश मिली थी। बस सब साफ हो गया था, लाश फिर से बह गई थी।
मलंगी ने फिर सिर पकड़ लिया, हे भगवान ख्वाजा पीर! क्या सचमुच ही लाश बह गई होगी, ये क्या हो गया! मेरे ईश्वर! ये सब मेरे कारण हुआ है, मैं ही इसका दोषी हूं, बस मुझ पर रहम हो, मुझे अब कोई माफ नहीं कर पाएगा। बस हड़बड़ाहट में वह पानी में उतर गया, पानी का बहाव तेज तो था, पर वह बस उस पत्थर तक पहुंचना चाहता था, ताकि ये पता लगाया जा सके कि कहीं लाश वहीं ज़मीन में न धंस गई हो। वह आगे बढ़ता गया। पर उसे उस पत्थर के निशान से पानी की गहराई का अनुमान न हुआ था, भला मल्लाहों की जात को पानी की जात का पता न हो ये कैसे हो सकता है, पानी में पत्थर आधा दिख रहा था, मतलब छाती तक पानी होगा, पर बाढ़ का पानी है, ये कोई शांत झील या तालाब नहीं, दरिया है, बस वह कदम दर कदम आगे रखता गया, पानी का बहाव उसके कदमों के बंधन को ज़मीन से बारमबार तोड़ना चाहता था। ये तो मलंगी की कुशलता थी कि या फिर ख्वाजा की मर्जी कि मलंगी लगभग रोड़े ‘बड़े पत्थर’ के करीब पहुंच गया, जिससे पानी टकरा कर तीर्व गति से इधर-उधर छितर कर बह रहा था।
मलंगी वही खड़ा हो गया उसे पता था कि आगे गहराई बढ़ती जाएगी। पत्थर ही आखिरी सरहद है वरना फिर चाहे मलंगी की लाश की अलग से कहानी बनती। मलंगी बस वही खड़ा कभी उल्लू की तरह नजरें गुमाता रहा और फिर धीरे-धीरे वह उसी जगह की टोह लेने लगा, जहां वह लाश था। वह धीरे से एक पैर को इधर-उधर गुमाता कि कहीं लाश पैर से टकरा जाए। ये बस वह करता जा रहा था। मात्र थोड़ा सा खिसकता और फिर बाएं पांव से पानी की अनदिखी सतह में उस लाश के आभाश को लताशता रहा। मलंगी का दिमाग बस जिस चीज से जुड़ गया, बस जुड़ गया, फिर इसके इलावा वह न कुछ सोचता है न ही उसमें ऐसी सोच बन पाई है, बादल छट रहे थे, बारिश बूंदा बांदी में बदल गई थी। इस वक्त अगर कोई मलंगी को देख लेता तो बस यही अनुमान लगाता कि वह ख्वाजा पीर की भक्ति कर रहा है। कोई कहता कि बच्चे के लिए फिर से कोई टूणा कर रहा है कोई उसकी हिम्मत की दाद देता तो कोई उसे फिर से यही कहता- ‘‘अरे ऐसे काम भला मलंगी नहीं करेगा तो क्या कोई ओर करेगा।’’ धुंध छटने लगी थी, इससे पहले कि उसे कोई देख ले, वह पीछे मुड़ने लगा, अब उसने तारी लगा दी उसे पता था कि अब तो किनारे पर ही पहुंचना था, तो फिर क्यों धीरे चले। किनारे लगा, अपना सिर का परना उठाया, जूते पानी में धोए, फिर से डाले और किनारे पर छोटे से सरकंडे की डाली को रोप दिया, सिर्फ यही देखने के लिए कि पानी बढ़ रहा है या फिर कम हो रहा है, नजरें इधर उधर दौड़ाई और गीले परने में प्लास्टिक में छिपाए बीड़ी के बंडल से बीड़ी निकाल सुलगा कर उकडु़ बन बैठ गया। बीड़ी के धुएं ने यही तस्वीर बनाई कि शायद मलंगी अब फिर से पानी के कम होने का इंतजार करेगा। उसे इस बात की सुध नहीं रही थी कि घर में बसंतो उसकी बाट जोह रही होगी। उसका मन बस उस लाश के फिर से उभरने के इंतजार में था। शाम सिर पर उतर रही थी और मलंगी बीड़ी के बाद बीड़ी के सहारे पानी में एक के बाद एक सरकंडे रोप रहा था। पानी कम हो रहा था, पर इतनी तेजी से नहीं, जितना मलंगी को इंतजार था। पर फिर भी सूर्य छल चुका था। अब जरा पानी को कम होने देते है और मलंगी की बसंतो के पास चलते हैं।
गांव में एक खबर ने गांव में हाहाकार मचा दिया था। खबर थी कि दरिया के किनारे वाले कोई चार कोह दूर गांव में कोई लाश दरिया के किनारे लगी है। इस खबर ने गांव में तो अलग-अलग बातें उठ रही थी पर बसंतो का सुख चैन छिन चुका था। वह पागलों की तरह चिल्ला उठी थी। मेरा मलंगी कहां है? उसे क्या पता था कि जब तू इधर-उधर पड़ोसन औरतों के घर में बरसात का समय गुजार रही थी तब वह तेरी ही सलाह के लिए तुझे पागलों की तरह तेरा इंतजार कर रहा था। अब तू पागल बन या न बन। मन की लहरों में गोते खाए बसंतो हार गई। मलंगी भी तो सुबह से गायब है। घर में कमरे में उसका जाल भी नहीं टंगा है, बस पूरे गांव में एक घर तो दूसरा घर बसंतो का एक ही मत था मलंगी सुबह से ही घर में नहीं है और ऊपर से ये बात भी पक्की हो गई थी कि वह जाल उठाकर दरिया की ओर गया था। टियाले पर बैठे कमल और राधे राम ने उसे बीड़ी पीने के बहाने रोका भी था। लोग लाश को कम और अब मलंगी की फिकर में छतरियां उठाकर इधर-उधर उसे ढूंढने के लिए फैल रहे थे।
कमलू ने दो-तीन लड़के लिए और बैटरी उठाई और दरिया की ओर चलने का फैसला लिया। बसंतो घर में रोना अलाप रही थी, औरतें इक्ट्ठी हो चुकी थी, हो न हो ये मलंगी ही होगा, ख्वाजा किसी को न बखसता है, भला मलंगी का क्या दोष था। जो इस अभागी बसंतो को बिना औलाद के ही छोड़ कर जा चुका है। उधर गांव के सरपंच बसंतो के घर पर आ चुके थे। तीन-चार लोग पहले उस गांव में भेजने का निर्णय लिया कि आखिर पता तो करके आओ कि वह लाश आखिर किसकी है उस आदमी की खबर लाओ जिसने ये खबर सुनी थी। दो आदमी उधर दौडे़ थे मस्तु हलवाई की बात थी वह दूर कस्बे से अभी आया था, तो उसे कोई अधूरी खबर दे गया था मस्तु भी बेचारा रात और बरसात के डर से जल्दी घर पहंुचने की फिराक में कुछ ज्यादा न सुन पाया था। बस अब उन लोगों के आने का इंतजार था जो लाश की पहचान करने गए थे। अंधेरा सिर पर फैल चुका था। छम-छम बारिश होने शुरू हो गई थी और उधर मलंगी को ये ख्याल नहीं था कि उसके मन के अड़ियल या फिर सच्चे इरादे ने उसे मृत घोषित कर दिया है। वह सिर पर परना ओढ़े अभी भी दूर अंधेरे में पत्थर की ओर टकटकी लगाए खड़ा था। टार्च की रोशनी ने उसके टांगों को कंपा दिया। संरकड़ों को चीरती टार्च की रोशनी और खुसर पुसर की आवाजें उसके मन तक पहंुच गई। टार्च उसके चेहरे पर पड़ी, ‘‘ओए कौन हो तुम? अरे मलंगी, कमलू के मुंह से निकला, तुम यहां हो! तुम्हारा भला हो, भले मानुष माणु, तेरी बुद्धि को तो बस ख्वाजा समझे, चल घर, यहां कौन सा टूणा कर रहे हो, क्या मांग रहे ख्वाजा से? तुम भी कमाल हो! ये कोई टैम है चल घर तेरे टूणे यहीं रह जाणे हन और उधर तेरा स्यापा हो रहा है।’’
मलंगी के मन ने कहा- वह अभी पकड़ा नहीं गया है चुपचाप चल पड़, टूणा तो फिर टूणा ही सही। कमलू ने फिर पूछा, भला बच्चा नहीं होता है तेरे तो फिर दरिया पर तपस्या करने की किसने सलाह दे दी, वो भी रात को।’’ मलंगी कुछ न बोला। वह जैसे किसी गुनाहगार की तरह चुपचाप उनके साथ चलता बना। उसके मन में अभी भी पत्थर और उसके पीछे छिप्पी पानी की सतह के नीचे फंसी लाश ही थी। उसने अभी तक जो कहानी सुनी थी कि फलाना गांव में एक लाश मिली है, उसका अभी तक उसको विश्वास नहीं हुआ था। उसे वे लोग राक्षसों की तरह नज़र आ रहे थे जो उसे ढूंढते हुए यहां तक आ गए हैं। वह रह रह कर पीछे की और देख रहा था, पर अंधेरे में उसे सिर्फ अपने प्रयोजन की नाकामयाबी दिखाई दे रही थी। बस कुछ देर तक वे नहीं आते तो शायद वह सफल हो जाता लाश तक पहंुचने में। अब फिर सुबह का इंतजार करना पडे़गा।
मलंगी के घर का दृश्य कुछ और ही कहानी सुना रहा था। सिर्फ मलंगी के पास अपनी आप बीती थी। जो किसी दूसरे को पता नहीं थी और बसंतो के पास अपनी आप बीती थी जो सब को पता थी। मलंगी की बसंतो ने आज रात पहली बार उससे ढंग से बात की थी और थोड़े प्यार से डांटा भी था कि उसे बिना बताए वह कहीं न जाया करे। मलंगी सो तो गया लेकिन उसका चेतन और अचेनत मन दोनो कहीं और लगे थे, उसका मन अभी भी यही सोचने में लगा था कि आखिर लाश पानी का बहाव कम होने पर निकल आई होगी या फिर कहीं बह न गई होगी। किसी ने उसे अभी तक ये नहीं बताया था कि जिस लाश के लिए वह सुबह से परेशान है उसे किसी ओर मलंगी ने चार कोह दूर बहते हुए देख लिया है। इसलिए मलंगी को अब उस लाश का ख्याल दिल से निकाल देना चाहिए।
मलंगी की आधी रात को आंख खुल गई। बसंतो अभी भी गहरी नींद में थी। वह चुपचाप उठा। रबड़ के अपने बूट डाले बाहर मौसम साफ था। बिना टार्च के ही वह सीधा दरिया की और भाग निकला। दरिया का पानी काफी कम हो चुका था, उसने रात के अंधेरे में पत्थर के निशान को ढूंढा, अपना पजामा उतारा और दरिया के किनारे के उथले पानी में उतर गया। पत्थर के करीब पहंुच कर उसने आस पास हर जगह का निरिक्षण किया। वह धारा के साथ काफी नीचे तक भी गया। अब उसे तसल्ली हो गई थी कि लाश नीचे बह चुकी है। चुपचाप दुखी मन से वापिस आया। अंधेरा अभी भी पसरा था और बसंतो तो पहले ही बिस्तर पर ढेर थी, उसने बसंतो को धीरे से उठाया और सिर्फ इतना ही पूछा कि रात को लोग उसके घर पर क्यों इक्ट्ठा हुए थे?
— संदीप शर्मा