उपन्यास

भूमिका, घाट-84 “रिश्तों का पोस्टमार्टम” .डाॅ शीतल बाजपेई

भूमिका
कविता सिंह तथा सौरभ दीक्षित “मानस” की संयुक्त रूप की यह पहली कृति है पर ऐसा बिल्कुल भी नही लगा मुझे,, बल्कि ऐसा लग रहा था कि मैं मंझे हुए लेखकों को पढ़ रही हूँ।
आप जब कहानी पढ़ना आरम्भ करेंगे तो विश्वास कीजिये आप स्वयं को पूरी कहानी पढ़ने से रोक नही सकेंगे, क्योंकि कहानी में इतने रोचक मोड़ है जो हर पल पाठक को खुद से जोड़कर रखते हैं। इस किताब को पढ़ने के पश्चात मुझे यह कहने में कोई संदेह नही कि इनका नाम भविष्य में शीर्षस्थ लेखकों में लिया जायेगा।

हमारा सारा जीवन रिश्तों की पहेलियाँ सुलझाने में बीत जाता है, कुछ रिश्ते जन्म के साथ मिलते हैं, कुछ समाज से मिलते हैं, कुछ रिश्ते मन बनाता है। मन से मन का रिश्ता जिसे हम मित्रता का नाम दे देते हैं पर कुछ रिश्तों के कोई नाम नहीं होते। ऐसे ही रिश्तों की कहानी है घाट चौरासी “रिश्तों का पोस्टमार्टम”। पोस्टमार्टम शब्द हालांकि नकारात्मक है क्योंकि पोस्टमार्टम निष्प्राण का किया जाता है जबकि इस कहानी का हर रिश्ता प्राणवान है। इस कहानी में रिश्तों का इन्द्रधनुष आकार लेता है,, जिसमें अपनत्व, प्रेम, कर्तव्य, त्याग,क्षमा, प्रेरणा, आत्मसम्मान सहित लगभग सभी मानवीय गुण अपनी इंद्रधनुषी छटा बिखेर रहे हैं।
कहानी का नायक सौरभ मध्यम वर्गीय परिवार का बड़ा बेटा है उसे अपनी जिम्मेदारी का पूरा अहसास है, संस्कारी बेटा, सहृदयी मित्र, सकारात्मक विचारों वाला शिक्षक, संवेदनशील भाई, और शर्मीला प्रेमी। कहानी का हर पहलू मन को छूता है, प्रवाह इतना निर्मल कि कहानी के साथ मन बहता चला जाता है।
लगभग हर किरदार को कहानीकार नें कुछ अलग से नाम भी दिये हैं, जैसे निशा का नाम “पंडित” क्यों पड़ा? हर पात्र के धागे की बुनावट इतनी स्पष्ट है कि कहीं कोई भी पात्र अनुपयुक्त नही लगता। प्रेम के कितने ही आयाम रचनाकार ने दिखाये, एक ओर सौरभ का प्रेम है जो निशा को बेहद प्यार करता है पर कभी कह नही पाता और दूसरी तरफ उसके दोस्त का प्यार, जो अपने प्रेम को सम्मान देने के लिए समाज से टकराने को तैयार हो जाता है। वहीं यशवी का प्यार जिसने अपने दोस्त को सफलता के शिखर पर पहुँचाना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।
परंतु प्यार के इन्द्रधनुष में काला रंग भी तो होता है जहाँ प्रेम का सिर्फ दिखावा किया गया अपने स्वार्थ के लिए। लेखकद्वय ने उन पहलुओं को भी छुआ है जिसमे जीवन को ऐसा जख्म मिलता है जो सारी उम्र भर नही पाता। निशा अपनी माँ के दर्द को तो कम न कर सकी पर उसके हाथ हर किसी के आँसू पोछने के लिये हमेशा तैयार रही। खैर, कहानी के बारे में ज्यादा बात करके मैं उसका जा़यका कम नही करना चाहती।
सौरभ दीक्षित “मानस” जो कथाकार के साथ उत्कृष्ट कवि भी हैं, उन्होंने अपनी कविताओं को बहुत ही सलीके से कहानी के साथ जोड़ा है व अपनी काव्य प्रतिभा को प्रदर्शित करने का कोई अवसर नही छोड़ा। वहीं कविता सिंह की बेजोड़ भाव प्रधान रचनाऐं कहानी के मोड़ में एक नया रस भर देती हैं। सबसे आश्चर्य की बात ये है कि मुुझे कथाशिल्प में ये आभास कहीं नहीं हुआ कि किताब दो लेखकों द्वारा लिखी गई है, जो लेखकद्वय के बेजोड़ आपसी समझ की निशानी है।

गद्य और पद्य दोनों की बेहतरीन जुगलबंदी देखते ही बनती है, कहानी पढ़ते हुये चित्र सजीव हो उठते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई चलचित्र देखने बैठी हूँ। भावनाओं का इन्द्रधनुष उकेरते दृश्य मन मोह लेते है। मेरी अशेष शुभकामनायें आपकी प्रथम कृति को।
इस कहानी का नायक बार बार एक बात दोहराता है कि “जो सुधर जाये वो सौरभ नहीं” इस पर मैं यही कहूँगी कि आप बहुत सुगढ़ हैं और यही आपकी विशेषता है।…डाॅ शीतल बाजपेई

 तुम जानते हो ना..!!! मुझे काॅलर पकड़कर खींचना आता है-निशा
 कैसे बताऊँ किस आग में हूँ? किसी के दिल में हूँ, किसी के दिमाग में हूँ-निशा
 सूख जाती हैं कई नदियां बीच राह में ही, सभी के हिस्से समन्दर नही आता-निशा
 ये दुनिया भी निराली है मानस! जो जीना चाहते हैं जिंदगी उनके साथ बेवफाई करती है और जो मरना चाहते हैं उनके पास से हटती ही नहीं।”-यशवी
 एक बार ठोकर खाकर गिर जाओ तो चलना तो नही छोड़ सकते-कवी सक्सेना
 आ ही जाती हैं मंजिलों तक, कौन रोक सका है भावनाओं को-सौरभ
 कद़ कितना भी ऊँचा हो जाये पर पैर जम़ीन पर ही रखना चाहिये-प्रतीक उर्फ निरउआ
 जिन्दगी के हाथों ही छले जा रहे है। पता नहीं हम कहाँ चले जा रहे है?-सौरभ
 थम जा यार या बाहर ही कूद पड़ोगे? मैने अपने दिल को समझाते हुए कहा-मानस
 जिन्दगी में एक ऐसा दिन भी आता है जब दुनियां की सारी दौलत भी काम नहीं आती-मानस
 मानस! इन पैसे से अपने होठों की ऐसी हँसी खरीदो जो कभी न मुरझाये-यशवी
 ज़माने को हम इस कद़र देखते हैं, दिखता है दुख ही जिधर देखते हैं।-निशा
 याद रखो अपने लिये खुद खड़ा होना पड़ता है। आपकी लड़ाई कोई दूसरा लड़ने नही आता-निशा
 जब तक हार नही जाते खुद को हारने नही देना है-निशा
 अक्सर हम हाॅस्पिटल में हम बच्चे पैदा होने की खुशी का इंन्तजार करते है पर आज हम किसी के मरने के डर में जी रहे हैं-मानस
 अगर आप सफल हो तो आपके दोष भी किसी को नजर नही आते और अगर असफल तो आपकी भूल भी गुनाह नजर आने लगता है-मनु (चिकनी चमेली)
 जो सुधर जाए वो सौरभ नही-सौरभ
 चलो कपड़े पहनते हैं अब इश्क़ पूरा हुआ.“ छी..!!!..निशा
 चाँद भी जल रहा है तुम्हें देखकर-सौरभ
 लगता है यूँ, सोई नही हूँ, सच तो ये है, रोई नहीं हूँ-निशा
 जिन्दगी हमारी अपनी हैं फिर क्यों हम बन जाते हैं कठपुतली???-निशा
 आँटी, तू तो अपने बेटे के लिये दो साल पहले मर गयी थी और दो महिनों पहले वो तेरा अन्तिम संस्कार भी कर गया- निशा
 इस पागल की पगली बन जा, मेरी सांस तू अगली बन जा-सौरभ
 मुझे भूली तो नही पण्डित, भूलने भी नहीं दूँगा-बिल्लू वायरस
 ये इमोशनल अत्याचार नही चलेगा। पार्टी लूँगा पार्टी!-शक्ति शिकारी
 मैं तुम्हारे साथ जीते हुए बुड्ढा होकर टैंटिया जाता पर खुद से नहीं बोलता-सौरभ

सौरभ दीक्षित मानस

नाम:- सौरभ दीक्षित पिता:-श्री धर्मपाल दीक्षित माता:-श्रीमती शशी दीक्षित पत्नि:-अंकिता दीक्षित शिक्षा:-बीटेक (सिविल), एमबीए, बीए (हिन्दी, अर्थशास्त्र) पेशा:-प्राइवेट संस्था में कार्यरत स्थान:-भवन सं. 106, जे ब्लाक, गुजैनी कानपुर नगर-208022 (9760253965) dixit19785@gmail.com जीवन का उद्देश्य:-साहित्य एवं समाज हित में कार्य। शौक:-संगीत सुनना, पढ़ना, खाना बनाना, लेखन एवं घूमना लेखन की भाषा:-बुन्देलखण्डी, हिन्दी एवं अंगे्रजी लेखन की विधाएँ:-मुक्तछंद, गीत, गजल, दोहा, लघुकथा, कहानी, संस्मरण, उपन्यास। संपादन:-“सप्तसमिधा“ (साझा काव्य संकलन) छपी हुई रचनाएँ:-विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताऐ, लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित। प्रेस में प्रकाशनार्थ एक उपन्यास:-घाट-84, रिश्तों का पोस्टमार्टम, “काव्यसुगन्ध” काव्य संग्रह,