गज़ल
दगा होता रहा है साथ अपने यार पहले भी
गुलों की चाह में हमने चुने हैं खार पहले भी
इस मर्ज़ के शिकार पहले तुम ही नहीं हो
शहर में थे बहुत से इश्क के बीमार पहले भी
नई तो है नहीं साज़िश प्यार की राह रोकने की
नफरत ने लगाए थे कंटीले तार पहले भी
इन हथियारों के दम पर डरा न पाओगे हमको
देखे हैं हमने ये तीर और तलवार पहले भी
अंदाज़-ए-बयां हो मुख्तलिफ जिनका ज़माने से
हुए हैं सिरफिरे हम जैसे कुछ दो-चार पहले भी
— भरत मल्होत्रा