पुस्तक समीक्षा

“पाथर टीला” : ग्राम्य जीवन के बदलते मिज़ाज का दस्तावेज

जब से गांव में शहरीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है और शिक्षा का प्रसार व व्यापारीकरण हुआ है तब से एकता की जगह अनेकता, निर्माण की जगह संहार और जोड़ने की जगह तोड़ने की प्रक्रिया तेज हो गई है I अब हर जाति के अलग -अलग खूंटे हैं और अपनी-अपनी पंचायत I सामाजिक न्याय के सुनहरे नारे के साथ सामाजिक अन्याय का चक्र तेज हो गया है I अब गांव शहर बनते जा रहे हैं और शहरों में गांवों की छवि को कैद करने की कोशिश हो रही है – कभी कैमरे में तो कभी गमलों में I गांव के पनघट वीरान हो गए हैं और चौपाल की जगह दूरदर्शन का मायावी संसार आबाद हो गया है जहां फिल्म आधारित कार्यक्रमों की पुरस्कार आधारित मृगमरीचिका होती है I पंच प्रपंचावातर हो गए हैं और मुखियागण दोधारी तलवार I बसंत के आगमन की सूचना दूरदर्शन देता है तथा सावन- भादों में बारहमासे और झूमर की जगह ‘चोली’ के पीछे छिपी वस्तु की खोज होने लगी है I ग्रामवासी अब गंवार नहीं रहे, अब तो शहरी बाबुओं की बुद्धि भी उनके सामने लाचार होकर पानी भरने लगती है I भारत के गाँवों के बदलते मिजाज को श्री रूपसिंह चंदेल ने अपने महत्वपूर्ण उपन्यास “पाथर टीला” में जीवंत कर दिया है I लम्बे समय के उपरांत मैंने 327 पृष्ठों का कोई उपन्यास पढ़ा I “पाथर टीला” में भारत के बदलते हुए गाँवों की आशा- निराशा, जय – पराजय, हर्ष – वेदना, प्रपंच – सरलता का जीवंत व प्रभावशाली चित्रण प्रस्तुत किया गया है I सहज भाषा में लिखे गए इस उपन्यास में समस्त विशेषताओं – कमियों के साथ ग्रामीण जनपद को आकार दिया गया है I पहले कभी “भारत माता ग्रामवासिनी” रही होगी लेकिन अब तो गाँवों में छल, प्रपंच, घटिया राजनीति और एक – दूसरे को फंसाने का आपराधिक कृत्य चलता रहता है I “पाथर टीला” गाँव तो एक प्रतीक मात्र है, यह कहानी उत्तर भारत के हर गाँव की है I हर गाँव में दो- चार गजेन्द्र सिंह मिल जाते हैं जो गाँव में विष घोलकर शांतिप्रिय लोगों का जीना दूभर कर देते हैं I भारत में लाखों बलजीत सिंह ऐसे हैं जो नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद गाँव के प्रदूषणरहित वातावरण में आराम से जीवन व्यतीत करना चाहते हैं लेकिन गजेन्द्र सिंह जैसे अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों ने गाँवों के मानसिक प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ा दिया है कि कोई शांतिप्रिय व्यक्ति वहाँ रह ही नहीं सकता है I गांधीजी ने जिस ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना की थी, गाँवों में उस पंचायत व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ती हैं I प्रस्तुत औपन्यासिक कृति में ग्राम्य जीवन की विकृति, त्रासदी, बेचारगी, दैन्य, शोषण और जातीय संघर्ष का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण किया गया है I पाथर टीला गाँव की कमली के लिए तो अजय ने मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया और वह गजेन्द्र सिंह से विद्रोह कर आज़ाद हो गई लेकिन आज भी लाखों कमली गजेन्द्र सिंह जैसे राक्षसों का उत्पीडन सहने के लिए अभिशप्त है I जब थानेदार गाँव के प्रभावशाली व्यक्ति का गुलाम हो जाए तब शासन – प्रशासन की कल्पना ही की जा सकती है I उपन्यास में ग्राम्य जीवन अपनी सम्पूर्णता में चित्रित हुआ है I इसमें शोषण, अन्याय, उत्पीडन के साथ – साथ व्यापक फलक पर मेला – ठेला, रीति- रिवाज, खेती- किसानी आदि का भी चित्रण किया गया है I उपन्यास की भाषा सहज –सरल और शैली बोधगम्य है I निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि “पाथर टीला” ग्राम्य जीवन के बदलते मिजाज का दस्तावेज है जहाँ पर गजेन्द्र सिंह, जग्गू, कुक्कू, बिल्ले, रामरतन जैसे लोगों का ही साम्राज्य है, जहाँ पर समानता, शोषणहीनता, बंधुत्व, सर्वधर्मसमभाव आदि की अवधारणाएं दम तोड़ देती हैं, जहाँ पर हरिहर अवस्थी जैसे नेकदिल इंसान अन्याय को चुपचाप देखते रहने के लिए विवश हैं, जहाँ पर थानेदार शार्दूल सिंह के लिए कानून दो कौड़ी की वस्तु है I
उपन्यास : पाथर टीला
उपन्यासकार : श्री रूपसिंह चंदेल
प्रकाशक : भावना प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ : 327
मूल्य : 400/-
वर्ष : 2010

*वीरेन्द्र परमार

जन्म स्थान:- ग्राम+पोस्ट-जयमल डुमरी, जिला:- मुजफ्फरपुर(बिहार) -843107, जन्मतिथि:-10 मार्च 1962, शिक्षा:- एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन, प्रकाशित पुस्तकें :1.अरुणाचल का लोकजीवन 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य 3.हिंदी सेवी संस्था कोश 4.राजभाषा विमर्श 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय 6.हिंदी : राजभाषा, जनभाषा,विश्वभाषा 7.पूर्वोत्तर भारत : अतुल्य भारत 8.असम : लोकजीवन और संस्कृति 9.मेघालय : लोकजीवन और संस्कृति 10.त्रिपुरा : लोकजीवन और संस्कृति 11.नागालैंड : लोकजीवन और संस्कृति 12.पूर्वोत्तर भारत की नागा और कुकी–चीन जनजातियाँ 13.उत्तर–पूर्वी भारत के आदिवासी 14.पूर्वोत्तर भारत के पर्व–त्योहार 15.पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक आयाम 16.यतो अधर्मः ततो जयः (व्यंग्य संग्रह) 17.मणिपुर : भारत का मणिमुकुट 18.उत्तर-पूर्वी भारत का लोक साहित्य 19.अरुणाचल प्रदेश : लोकजीवन और संस्कृति 20.असम : आदिवासी और लोक साहित्य 21.मिजोरम : आदिवासी और लोक साहित्य 22.पूर्वोत्तर भारत : धर्म और संस्कृति 23.पूर्वोत्तर भारत कोश (तीन खंड) 24.आदिवासी संस्कृति 25.समय होत बलवान (डायरी) 26.समय समर्थ गुरु (डायरी) 27.सिक्किम : लोकजीवन और संस्कृति 28.फूलों का देश नीदरलैंड (यात्रा संस्मरण) I मोबाइल-9868200085, ईमेल:- [email protected]