गीतिका
देखो जीवन के खेल कितने निराले हैं,
बड़ी मुश्किल से मिलते दो निवाले हैं।
इस पापी पेट की आग बुझती ही नहीं,
ना जाने कितने घर इसने जला डाले हैं।
कोई नहीं सुनता हम गरीबों की पुकार,
भगवान भी बने अमीरों के रखवाले हैं।
जान हथेली पर लिए फिरते रहे हैं हम,
कितने ही बरस सड़कों पर निकाले हैं।
पसीने की कीमत भी नहीं मिली कभी,
उम्र बीती, आँखों में पड़ गए जाले हैं।
दिन कहीं और रात कहीं बीतती रही,
वक़्त ने उम्मीदों के सूरज भी ढ़ाले हैं।
हालात हमारे बद से बदतर हो गए हैं,
लोगों की गालियों ने ही हम पाले हैं।
बस “सुलक्षणा” लगा देती है मरहम,
वरना सबने बेरुखी के पत्थर उछाले हैं।
— डॉ सुलक्षणा