नोबेल प्राइज इन इकोनॉमिक्स
जब से सोशल मीडिया का चस्का लगा है, कई विचारों से अवगत हो रहा हूँ. कहीं से प्रेम मिल रहा है, तो कहीं से दुत्कार ! सभी फ़ेसबुकियों का टारगेट सरकार ही होती है यानी जिसकी वर्त्तमान में सत्ता होती है, उनके प्रति हम निष्ठुर हो जाते हैं. हम अपनी गलती को नजरअंदाज कर महँगाई, मोब्लिंचिंग आदि को लेकर उसे निकम्मा ठहराते हैं, भले ही हमारे गिरहबान के नीचे कालिख पुती हो….
मैं भी सरकार को गड़ियाने के उद्देश्य से फ़ेसबुक पर पोस्ट करने की सोच ही रहा था कि मकान के बाहर की गली में किसी बेचनेवालों की आवाज मेरे मानस-पटल से टकराई- ले लो, भाई ! ले लो !! सिर्फ़ 60 रुपये में सपरिवार बैठकर भरपेट खाओगे ! मैं इसे नजरअंदाज कर फ़ेसबुक पर पोस्ट करने को लेकर फिर सोचने लगा कि फिर से वही आवाज मेरे कानों टकराई…. शायद वो विक्रेता मेरे दरवाजे के ग्रिल को नॉक करने लगा था…. मेरी विचार-तंद्रा टूटी, सोचा- नियोजित शिक्षक के रूप में मुझे कई महीनों का वेतन नहीं मिला है. अच्छा ही है कि कोई डिब्बेवाला अगर इस महँगाई में सिर्फ़ 60 रुपये में ही सपरिवार भरपेट भोजन करा देते हैं ! घर पर 6 सदस्य भी तो है. तब मैंने उसे वहीं से आवाज़ लगाई- वहीं ठहरो, भाई ! मैं अभी आकर गेट खोलता हूँ….
लुंगी को ठीक से व्यवस्थित कर मैं बाहर आया, तो देखा- उनके पास खाने के डिब्बे नहीं, अपितु ताड़ व खजूर के पत्ते, कुश आदि की कई रंग-बिरंगे चटाइयाँ थी ! मैंने उसे टोक ही दिया- ये क्या है ? खाने की सामग्री कहाँ है ? अभी तो तुम आवाज लगा रहे थे कि सिर्फ़ 60 रुपये में सपरिवार बैठकर भोजन करेंगे ! परंतु यहाँ तो चटाई देख रहा हूँ….
इस प्रश्न पर उन्होंने सीधा-सपाट जवाब दिया- मेरे कहने का मतलब यह था कि चटाई बहुत बड़ी है, जो सिर्फ़ 60 रुपये में मिल रही है…. यह इतनी बड़ी है कि दस व्यक्ति भी इसपर बैठकर खा सकते हैं…. सर, मैंने तो यही सोचकर आवाज लगाई थी !
…. और इसे सुन मुझे अब अपने पर ज्यादा ही गुस्सा आने लगा था. कुछ अनहोनी मेरे हाथों न हो जाय, इसलिए उस चटाई विक्रेता को अँगुली के इशारे से वहाँ से रुख़सत होने को कह मैं वापस पैर अपने बेडरूम में आ गया….. बेडरूम के आलमारी के रैक पर रखा दादाकालीन रेडियो से भारतीय गरीबी पर रिसर्च को लेकर इस साल के अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार विजेता के बारे में समाचार प्रसारित हो रहा था….