हिंदी कवि धूमिल की कविताओं में श्रमिकों के लिए हर दिन मुक्ति दिवस
हिंदी के प्रसिद्ध कवि सुदामा पांडे ‘धूमिल’ की इस कवितांश से प्रस्तुत आलेख को सँवारते हुए हम मजदूर दिवस, श्रमशक्ति दिवस, मई दिवस इत्यादि जयघोष दिवस को पुनर्भाषित का प्रयास कर रहे हैं। लॉकडाउन में भारतीय श्रमिकों व मजदूरों को जिस परेशानियों से साबका हुआ, वह किसी भी शरीर को स्पृह और हृदय को स्पंदित कर देता है ! ध्यातव्य है, संयुक्त राज्य अमेरिका में पहली मई 1886 को हजारों की संख्या में श्रमिकों उपस्थित होकर कारखानों में 15 घंटे कार्य कराने के विरुद्ध हल्लाबोल किये थे और यही आवाज कारखाना मालिकों के विरुद्ध एक संदेश बन गया, जो पहली मई को हुई थी, एतदर्थ प्रति वर्ष पहली मई को हम मजदूर दिवस, श्रमशक्ति दिवस या मई दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं! श्रमिकों द्वारा यह पहली जनक्रांति व मालिक के विरुद्ध सर्वहाराओं द्वारा यह पहली हल्लाबोल थी। भारत की बात की जाए तो भारत में श्रमिक दिवस व श्रमशक्ति दिवस मनाने की शुरुआत मद्रास (अब चेन्नई) में पहली मई 1923 से हुई थी!
दरअसल यह ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस’ के रूप में यह दिवस अभिहित है । चूँकि एक मजदूर या श्रमिक देश के निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाता है, जो कि देश के विकास में अहम योगदान लिए होता है। सत्यश:, देश, समाज, संस्था और कल-कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों की अहम भूमिका होती है। मजदूरों के बगैर औद्योगिक इकाइयों के खड़े होने की कल्पना नहीं की जा सकती, इसलिए श्रमिकों का समाज में अपना ही एक महत्व है। अगर भारत में कहीं भी बंधुआ मजदूरी कराई जाती है तो यह प्रत्यक्षत: बंधुआ मजदूरी प्रणाली उन्मूलन अधिनियम 1976 का उल्लंघन होगा।
कवि धूमिल भी मजदूरी किये थे और मैट्रिक करने के बाद आईटीआई, वाराणसी से किया, लेकिन नौकरी तुरंत नहीं मिली, तब मजदूरी भी किया । बाद में इलेक्ट्रिक डिपार्टमेंट में इंस्ट्रक्टर बने । उनका जन्म खेवली, वाराणसी में हुआ था। उनका मूल नाम सुदामा पांडेय था। धूमिल उनका उपनाम था, लेकिन अफसोस इस क्रांतिकारी कवि का निधन ब्रेन ट्यूमर से सिर्फ 38 वर्ष की अल्पायु में हो गई। उनकी कविता में परंपरा, सभ्यता, शालीनता और दकियानूसी प्रवृत्ति का विरोध है, तब न वे धूमिल थे, हैं ! कवि धूमिल तत्कालीन व्यवस्था से मार खाये हुए थे, वे इन बातों से वाकिफ थे कि व्यवस्था अपनी रक्षा के लिये इन सबका उपयोग करती है, इसलिये वे इन सबका विरोध करते हैं। कविता में उनका आक्रामक स्वभाव मुखर हो उठता है, मानों किसी श्रमिक ने कविता रची है ! वे अतार्किक कल्पनाओं के विरुद्ध थे।
उपन्याससम्राट प्रेमचंद ने कहीं लिखा है कि मैं मज़दूर हूँ, जिस दिन ना लिखूँ, उस दिन मुझे ‘रोटी’ खाने का अधिकार नहीं है ! …. तो सिर्फ एक दिन के लिए ही मज़दूरबंधु श्रमिक दिवस क्यों मनाएँ ? दरअसल यह श्रमिकों व कामगारों के ‘मुक्तिदिवस’ के रूप में अभिहित होनी चाहिए। आज भी कई प्राइवेट फैक्ट्रियों में महिला श्रमिकों को पुरुष श्रमिकों के बराबर वेतन नहीं दी जाती । फैक्टरियों में आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन नहीं दिया जाता है। आज भी देशभर के प्राय: कार्यालयों या कल-कारखानों में महिलाओं के लिए अलग से शौचालय या वाशरूम की व्यवस्था नहीं है। कहीं-कहीं उन्हें भी दस-बारह घंटे कार्य करनी पड़ती हैं । तभी तो कवि धूमिल का वाजिब प्रश्न कविता के रूप बाहर निकलती है, यथा-
‘एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
यह तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है।’
संसद जो सबके लिए कानून बनाते हैं, वो दिल्ली में है । कवि पंकज चौधरी ने दिल्ली पर दोष मढ़ते हुए आख़िरत: कविता रच ही डाले-
‘दिल्ली में रहम नहीं है
दिल्ली में बेरहम ही बेरहम है
दिल्ली में अनाड़ी नहीं है
दिल्ली में खिलाड़ी ही खिलाड़ी है
बाकी
दिल्ली में पैंट उतार दो
दिल्ली में पैसा ही पैसा है!’
दिल्ली इत्तेफाक नहीं है। दिल्ली बनाने में कई सदी लगे, किंतु यह सदियों से मजदूर और मजबूर बनाते आ रहे हैं । बेरोजगारों को स्थायी काम देने के प्रति लाचार रहे हैं । देश की राजधानी में श्रमिकों की दुश्वारियों का रेलमपेल है और उधर सामंती समाज विलासितापूर्ण जिंदगी जी रहे हैं ! इस आलेखकार के परदादा पलंग पर नहीं सोए थे,दादा भी नहीं, बाप भी नहीं और यह आलेखकार भी नहीं, क्योंकि पलंग विलासी का प्रतीक है, जो मजदूर हेतु सम्भव भी नहीं! सब्जीविक्रेताओं के द्वारा सुबह-सुबह जो टैगलाइन कहे जाते हैं, यथा- ‘पला, सुवा, चुक्का’ ! यह हालाँकि सागों के तीन नाम हैं, तथापि इनका भावार्थ है- पलंग पर जो सोएगा, वो चुकेगा ! प्रश्न है, जब चारपाई व चौकी लेकर भी जीवनयापन किये जा सकते हैं, तो कई हजार रुपयों के व विलासी के प्रतीक पलंग पर सोना ही क्यों ? कवि धूमिल की कविता इसी अवस्था पर कह उठती है-
‘सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
‘ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को चूमना…
देखो, फिर भूल गया।’
वाकई, आलेखकार भी श्रमिक परिवार से हैं ! वैसे हर कामगार, लेखक, शिक्षक भी श्रमिक हैं ! फिर जहाँ श्रम है, वहाँ शर्म कैसा? बकौल, धूमिल जी की कवितांश-
‘कुछ रोटी छै
और तभी मुँह दुब्बर
दरबे में आता है… ‘खाना तैयार है?’
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेटभर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है।’
नियोजित, पारा और अतिथि शिक्षक भी ‘मज़दूर’ हैं ! हर जोर-जुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है और होना भी चाहिए । दुनिया के मजदूरों एक हो, तो भारत के पारा टीचर्स एक हो ! कवि धूमिल आगे कहते हैं-
‘आदतों और विज्ञापनों से दबे हुए
आदमी का
सबसे अमूल्य क्षण सन्देहों में
तुलता है
हर ईमान का एक चोर दरवाज़ा होता है
जो सण्डास की बगल में खुलता है
दृष्टियों की धार में बहती नैतिकता का
कितना भद्धा मज़ाक है
कि हमारे चेहरों पर
आँख के ठीक नीचे ही नाक है।’
तभी तो प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में मज़दूर है ! क्यों न हम अपने-अपने तरह से श्रमिकों के लिए मुक्तिदिवस मनाये ! कवि धूमिल कहते हैं-
‘ग़रीबी
एक ख़ुली हुई क़िताब
जो हर समझदार
और मूर्ख के हाथ में दे दी गई है।
कुछ उसे पढ़ते हैं
कुछ उसके चित्र देख
उलट-पुलट रख देते
नीचे शोकेस के।’
सचमुच में, बिका पत्रकार, डरा विपक्ष, अपमानित शिक्षक, चापलूस मित्र और मुर्दा आवाम से ‘लोकतंत्र’ ही नहीं, वरन ‘देश’ भी खत्म हो सकती है ! कवि धूमिल आगे बतियाते हैं-
‘और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है।’
सुदामा पांडे ‘धूमिल’ के तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं- संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडे का प्रजातंत्र । उन्हें 1979 में उनके मरने के बाद ‘कल सुनना मुझे’ काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जीवन रहते धूमिल ने अपना एक काव्य-संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ ही प्रकाशित कर सका था। उनकी पीड़ा तो देखिए-
‘मुझे लगा है कि हाँफते हुए
दलदल की बगल में जंगल होना
आदमी की आदत नहीं अदना लाचारी है
और मेरे भीतर एक कायर दिमाग़ है
जो मेरी रक्षा करता है और वही
मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है।’
ब्रेन ट्यूमर के चलते 10 फरवरी 1975 को मात्र 38 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। जबतक जीवित रहे, अभावों में रहे और खराब व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे । उनकी एक कवितांश है-
‘आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूँ –
क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
चुपचाप।’
यह मजदूर दिवस न होकर इनका नाम श्रमिकों के लिए मुक्ति दिवस होनी चाहिए, क्योंकि सिर्फ एक दिन तो श्रमिकों के लिए व्यथित दिवस हो होंगे, एतदर्थ पुर्नविचार की जरूरत है । बेरोजगारी की इस आलम में कवि पंकज चौधरी की कविता के साथ अपनी बात समाप्त करता हूँ-
‘बेटिकट था
टीटीई को देखते ही
टॉयलेट में घुस गया
टीटीई ने भी
टॉयलेट का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया!’