संदेश
लॉकडाउन में अनुशासन के चलते सामाजिक दूरी भले ही बढ़ने लगी थी, पर भावनात्मक दूरी घटने लगी थी. कभी फोन न करने वाली इंदु का फोन आया-
”कैसी हो बहिन! कहां तो मुद्दत हो गई तुमसे मिले! तबियत कैसी है? घुटनों के दर्द का क्या हाल है? सिर के चक्कर ठीक हो गए? पैरों में पसीने का क्या हाल है?” ढेरों सवाल एक ही सांस में पूछ गई इंदु.
”कोरोना जैसी बड़ी मुसीबत के भय के सामने घुटनों का दर्द, सिर के चक्कर, पैरों का पसीना कहां टिक पाएंगे? हमेशा से ही बड़ी बला के सामने छोटी बलाओं ने घुटने टेक दिए हैं.” उसने कहा.
”वो कैसे भला!”
”जैसे ही लॉकडाउन घोषित हुआ, घरेलू सहायकों के न आ पाने का सिलसिला भी शुरु हो गया, मन को घर-बाहर के सारे काम के साथ झाड़ू-चौका बर्तन करने के लिए भी तैयार कर लिया, बाकी पीछे छूट गया.”
”यह तो है ही, यहां भी यही हाल है.” कहकर इंदु ने तो फोन रख दिया, लेकिन उसका ध्यान कई सालों के अतीत में खो गया.
बच्चे तबियत का पूछते तो वह एक ही बात कहती- ”पैरों में बहुत पसीना आता है. लगता है पैर भी गीले हैं और चप्प्ल-शूज भी”
डॉक्टर समस्या पूछते तो वही रामकहानी- ”पैरों में बहुत पसीना!”
”मेरे मामा जी को पैरों में बहुत पसीना आता है.” सखियां कहतीं.
समस्या वहीं-की-वहीं रहती. मन को मजबूती से तैयार करते ही अब समस्या का अहसास हुआ ही नहीं. तभी उसके सामने एक पसीने और पसेब में टेक्निकल डिफरेंस आ गया. जहां स्किन में रोम छिद्र या पोर्स होते हैं, स्किन पर बाल होते हैं, वहां पर पसीना आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जब कि पसेब चिंतालु प्रवृत्ति और मानसिक तनाव के कारण आता है. पसेब हथेली और तलुओं पर ही आता है और यहां की त्वचा पर रोए या महीन बाल नहीं होते हैं.
उसने पैरों के तलुओं को हाथ लगाकर देखा, वह भी सूखा और चप्पल भी सूखी! तो यह पसीना था ही नहीं!
कोरोना का मुकाबला करने के लिए मन की मजबूती ने शायद पसेब को भी भागने को मजबूर कर दिया था.
”चिंतालु प्रवृत्ति और मानसिक तनाव अनेक बीमारियों की जड़ हैं.” जाते-जाते पसेब यह संदेश दे गया था.
पैर के तलुओं या हथेलियों में पसेब आने की दिक्कत आमतौर पर उन लोगों को होती है जो चिंतालु प्रवृत्ति के होते हैं। वैद्य सुरेंद्र सिंह राजपूत के अनुसार, हथेलियों और पैर के तलुओं में पसेब आना इस कई बार बदलते मौसम के कारण होता है तो कई बार यह इस बात का इशारा होता है कि आप किसी तरह के मानसिक दबाव से गुजर रहे हैं।