कहाँ जा के…
कहाँ जा के रुकेगा जाने ये कुदरत का कहर।
ज़िन्दगी लगने लगी जैसे पल-दो-पल का सफ़र।।
अपना बोया हुआ ही काटने को मिलता है।
झेल पाए तो झेल अपने हिस्से का ये ज़हर।।
अपने ही आशियाँ में क्यों तेरा दम घुटता है।
सोच में अब भी है जाएं किधर जाएं किधर।।
बेज़ा चीज़े समेटता है एहतियात से अब।
छुपा रखी थी कहाँ ऐसी कदर ऐसी फ़िकर।।
सूखे पत्तों के महल कब तलक ठहरेंगे भला।
कह रही हैं हवाएँ अब तो ठहर अब तो ठहर।।