बल्लू की गाँव वापसी (कहानी)
“भूरी सुनो!! रसोई में जितने भी डिब्बे हैं, सभी ठीक से देखलो, जहाँ -जहाँ भी तुम पैसे छुपा कर रखती हो। कहीं और भी रखें हों तो वहाँ भी देखलो। पिछले पंद्रह दिन बीत गए मेरे पास तो अब एक फूटी कौड़ी भी नहीं बची”। शाम को बल्लू ने अपने सवा साल के बेटे को बिस्किट खिलाते हुए पत्नी, भूरी से कहा। बल्लू की आँखों से आँसू की बूंदें बेटे के हाथ पर टपकतीं, उससे पहले ही उसने गमछे से पौंछ डालीं।
सुनकर भूरी कुछ देर के लिए सोच में पड़ गई लेकिन फिर एक डिब्बा खोलती है , दूसरा बन्द करती है, तीसरा खोलती है । पिछले ग्यारह महीने में उसने एक हजार तीन सौ रुपये बचाकर जमा कर लिए थे , सोचा था कानों के लिए टॉप्स खरीद लेगी, कुछ पैसे औऱ जोड़ लेगी। लेकिन बल्लू को चिंता में देखकर आज उसे रामचरितमानस की वह चौपाई याद आ जाती है जो उसकी माँ बचपन में कभी – कभी दोहराया करती है’ धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।। भूरी ने तीन सौ रुपये आँख बचाकर अपने ब्लाउज में रख लिए औऱ एक हजार रुपये बल्लू को देती हुई बोली ” मेरे पास इतने ही थे, अब नहीं है। मैंने सभी जगह देख लिए।
बल्लू उत्तरप्रदेश के आगरा जनपद के मेहरा गाँव का मूल निवासी है । दो साल पहले तक गाँव में सब्जी बेचता था, अपने गाँव के कुछ साथियों के साथ मुम्बई आगया था। तब से यहीं परेल में वाडिया हॉस्पिटल के पास पानी पूरी बेचकर हँसते – खेलते अपनी गृहस्थी चलाता है। पिछले एक साल पहले अपनी पत्नी और बच्चे को ले आया था। कम आय में भी खुश है। खुश रहने के लिए संशाधन हों यह आवश्यक नहीं।
बल्लू ने कहा ,कोरोना महामारी के कारण जब से लॉक डाउन हुआ है बैठे- बैठे ही खा रहे हैं। अपने क्षेत्र के जितने भी लोग थे, सब अपने अपने गाँव जा रहे हैं। पूरा मुम्बई बन्द है। जाने की कोई व्यवस्था नहीं है। रेल-बस सब बन्द हैं। भूरी ने पूछा, तो गाँव कैसे जाएंगे और अपने गाँव के सभी लोग कैसे जा रहे हैं??
बल्लू खड़े होकर बाहर दरवाजे की ओर देखता है। कोई आवाज दे रहा है । देखा तो उसके कुछ साथी थे, जो यह बताने आये थे कि बल्लू! गाँव जाने के लिए एक गाड़ी से बात हो गयी है वह हमें झांसी तक छोड़ कर आएगा। प्रति एक सवारी से हजार रुपये ले रहा है। बल्लू ऐसे निस्तेज हो गया मानो किसी ने हरे पेड़ के तने पर कुल्हाड़ी लगा दी हो। बल्लू ने कह दिया हम अभी नहीं जा रहे बाद में जाएंगे, तुम निकल जाओ।
बल्लू ने भूरी से कहा सो जाओ सुबह देखेंगे। भूरी ने आटे का डिब्बा देखा तो तली में एक मुट्ठी आटा निकला। उससे दो रोटी बनाई और अचार से बल्लू को परोस दीं। बल्लू को पता था इसलिए उसने एक रोटी खाई और एक रोटी भूरी को खाने को देदी। भूरी ने कहा मुझे भूख नहीं है, लेकिन बल्लू जानता था सुबह खाना बना ही नहीं तो…।
रात यही सोचते- विचारते गुजर गयी कि अब क्या करेंगे। अगर यहाँ रहते हैं तो जिएंगे कैसे ? यदि गाँव जाएंगे तो कैसे? सुबह जब बल्लू घर से बच्चे के लिए दूध लेने निकला तो कुछ समाज सेवी जरूरतमंदों को पूड़ी – सब्जी के पैकेट बाँट रहे थे। बल्लू वहाँ से दो पैकेट ले आया। भूरी ने कहा आज तो ठीक है लेकिन कल!!?? इसी चिंता को देखते हुए भूरी ने कहा हम भी गाँव चलते हैं।
भूरी ने हिम्मत दिखाई और दो थैलों में कुछ कपड़े रखे । रात आठ बजे गलियों से बचते- निकलते मुख्य मार्ग तक पहुँच गये। देखा तो उनके जैसे कई लोग पैदल जा रहे हैं।
भूरी की गोद में बच्चा है, बल्लू के हाथों में थैले। रास्ते का कोई ज्ञान नहीं पर मंजिल की ओर कदम बढ़ते जा रहे हैं। जिजीविषा इंसान को हर खतरे का सामना करने का हौसला दे देती है। चलते-चलते एक मिनी ट्रक मिला जो गांवों के भीतर से गुजरते हुए पलायन कर रहे यात्रियों को लाने- ले जाने का काम कर रहा था। आज भूरी की जमा पूंजी किराये के काम आयी। बल्लू ने किसी भी तरह यह यात्रा दस दिनों में पूरी की।
दोनों जैसे ही घर के दरवाजे पर पहुँचे बल्लू की माँ ने एक – एक करके तीनों को अपने गले लगा लिया। पड़ौस की एक महिला ने कहा दादी क्या कर रही हो!!!! पहले साबुन से इनके हाथ पैरों को तो धुलाओ!! कोरोना का संक्रमण हो सकता है!!!
लेकिन माँ, नाती को गोदी में चपेटे हुए आँसू बहा रही है।
ये माँ के आँसू किसी सेनेटाइजर से कम थोड़े ही हैं चाची
..बल्लू कहते हुए माँ के साथ घर के भीतर चला गया।
— डॉ. शशिवल्लभ शर्मा