लघुकथा

दरवाजा

दरवाजा
ममता पिंजरे में बन्द पक्षी की तरह जीवन बिता रही थी।वह परिवार के रीति- रिवाजों में बुरी तरह झटपटा रही थी।वह इन तकिया-नूसी रिवाज़ो से तंग आ गई थी।परिवार ने उसको घर में ही कैद कर दिया था।वह पक्षी की तरह आजाद होना चाहती थी।खुले आसमान में उड़ना चाहती थी।पर परिवार की पुरानी सोच,पढ़ा- लिखा दिया।अब घर पर ही रहो,घर का काम-काज संभालो।लड़कियों का घर से बाहर निकलना ठीक नहीं है।बाहर निकलते ही इनके पंख निकल आते हैं।फिर यह किसी का मान-सम्मान नहीं करती।परिवार के अपने ही तर्क थे।वह इन सब तर्कों को झुठला देना चाहती थी।वह यह बात स्वीकार नहीं करती थी कि बेटियाँ घर से बाहर निकल कर अपने संस्कार भूल जाती है।वह भी जॉब करना चाहती थी।वह खुलकर जीना चाहती थी।क्या वह पहली पढ़ी- लिखी लड़की थी जो शहर में जाकर जॉब करना चाहती थी?उससे पहले भी हजारों लड़कियों ने ऐसा किया था।अपने सपने पूरे किए थे।परिवार का नाम रोशन किया था।वह अपनी मान-मर्यादा सब जानती थी। वह इन बंदिशों से छुटकारा पा लेना चाहती थी।वह लगातार प्रयास कर रही थी।कहते हैं ना जहाँ चाह होती है वहाँ राह भी निकल जाती है।माँ के सहयोग से उसने घर पर अपनी बात मनवा ली।उसने परिवार के लोगों को बहुत से उदाहरण दिए।उसने पुराने रीति- रिवाजों के बन्द दरवाजों को तोड़ दिया।अब उसे बार- बार अपने अरमानों का दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं थी।वह रोज- रोज की खटखट से छुटकारा पा चुकी थी।शहर में नई राहे उसका इंतजार कर रही थी।वह उड़ रही थी।कुछ ही वर्षो में उसने सफलता की ऊँची उड़ान भर ली थी।उसके साहस ने और भी लड़कियों के लिए दरवाजे खोल दिए थे।
राकेश कुमार तगाला
पानीपत(हरियाणा)
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राकेश कुमार तगाला

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