ग़ज़ल
आजकल गुमसुम बहुत रहता हूँ मैं
कैसे कह दूँ दोस्तो अच्छा हूँ मैं
पूछता कोई नहीं कैसा हूँ मैं
इस जहां में किस कदर तन्हा हूँ मैं
हक़ बयानी की मिली ऐसी सज़ा
आजकल हर शख़्स को चुभता हूँ मैं
चापलूसी की नहीं यारो कभी
इसलिए आगे न बढ़ पाया हूँ मैं
मिल न पाई श्लेष मुझको वह खुशी
उम्र भर जिसके लिए तरसा हूँ मैं
— श्लेष चन्द्राकर