ग़ज़ल
ना जाने कब ये हालात बदलेंगे,
गरीबों के प्रति जज़्बात बदलेंगे।
हिकारत की नजरों से देखते हैं,
ना जाने कब सवालात बदलेंगे।
पूंजीवाद को बढ़ावा मिल रहा,
कब इनके भी दिन रात बदलेंगे।
बचपन जल रहा है इस आग में,
कौन जीत में इनकी मात बदलेंगे।
भरपेट खाना नहीं मिल पाता है,
कैसे इनके भी ख्यालात बदलेंगे।
सुलक्षणा उठा बीड़ा बदलाव का,
शिक्षा से इनकी औकात बदलेंगे।
— डॉ सुलक्षणा