जानें कैसे हुआ मृत्यु भोज का आरम्भ!
जानें कैसे हुआ मृत्यु भोज का आरम्भ!
मृत्यु भोज एक सामाजिक बुराई है इसके विरोध में तमाम समाज सेवी संस्थाओं के द्वारा अभियान चलाये जाने के बाद भी यह बुराई खत्म होने का नाम नहीं ले रही । हालांकि कुछ हद तक इसमें कमी अवश्य आई है लेकिन आज बड़ी संख्या में मृत्यु भोज के आयोजन जारी हैं।
कुछ लोग इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर अपने सामाजिक होने का दम्भ भरते हैं तो कुछ मध्यमवर्गीय परिवार समाज के दबाव में कर्जा लेकर मृत्यु भोज का आयोजन करते हैं। जो लोग आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं उन्हें इस आयोजन से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे इसे अपना सामाजिक स्टेटस मानते हैं। कुछ राजनैतिक लोग हैं जो इस आयोजन को वोट बैंक में इज़ाफ़ा करने के लिए करते हैं, लेकिन जो निम्न मध्य वर्ग है वह इस आयोजन को कर्जा लेकर भी करता है। कहीं कहीं तो समाज के जाति बिरादरी वाले लोग शोकाकुल परिवार को कर्जा देकर मृत्यु भोज करवाते हैं चूँकि कई बार तो मृत व्यक्ति की मृत्यु से पूर्व बीमारी में लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी लोग इस आयोजन के लिए ज़मीन भी गिरवी रख देते हैं जो बाद में कर्ज और व्याज में डूब जाती है।
पिछले कुछ वर्षों में युवा पीढ़ी इस कुप्रथा के विरोध में आगे आ रही है, कुछ जागरूक लोगों ने इस भोज में भोजन करना भी बन्द किया है। लेकिन आज पढ़े लिखे समाज में जितने सकारात्मक परिणाम आने चाहिए उतने नहीं आये।
इस मृत्यु भोज का आधार स्रोत क्या है? आखिर कहाँ से आरम्भ हुआ यह दिखावा?इसके मूल कारण और तथ्य को जानने का प्रयास करते हैं।
प्रश्न यह है कि पुराणानुसार, मृत इंसान की आत्मा की शांति हेतु किया गया हवन कुप्रथा कैसे बन गई?
उक्त प्रश्न पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो सृष्टि के सञ्चालन में जन्म और मृत्यु परमात्मा की अनिवार्य व्यवस्था है। किसी मनुष्य(स्त्री-पुरुष) की मृत्यु होने पर घर में अशुद्धि हो जाती है।मृत शरीर में से घर में किटाणु-विषाणु हवा में मिल जाते हैं। शुद्धिकरण हेतु दस से तेरह दिन में वाइरस स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं।मृत शरीर को घर से निकालने के एक दो दिन बाद ही गाय के गोबर से लीपा जाता था, और तेरह दिन लगातार घी का दीपक रखे जाने की व्यवस्था आज भी है।
भारत की सनातन संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक संस्कृति है। हमारे ऋषि इसके बड़े जानकार थे। प्राचीन काल में घर में मृत्यु होने के तेरह दिन बाद घर के वातावरण की पूर्ण शुद्धि के लिए ब्राह्मणों को बुलाकर हवन कराया जाता था। आज भी होता है। हवन से वातावरण शुद्ध होता है। वैदिक परम्परा के अनुसार यज्ञ-अनुष्ठान का कार्य ब्राह्मणों का ही था। शोकाकुल परिवार जिसने बीते दिनों में शोक के कारण ठीक से भोजन नहीं किया; स्वास्थ्य प्रभावित हुआ, इसके लिए ब्राह्मणों द्वारा यह विधान किया गया कि खीर-पूड़ी बनाकर सभी लोग भोजन करें और शोक का निवारण करें। ब्राह्मणों के द्वारा यह हवन प्रातःकाल से दोपहर तक चलता था, तो ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था। इस दिन घर परिवार रिस्तेदार भी आते थे तो वह भी भोजन करते थे।
तो ब्राह्मण,घर परिवार, रिस्तेदारों को तेरह दिन पश्च्यात भोजन कराने का यह आधार तो समझ आता है। लेकिन पाँच सौ से पाँच हजार लोगों को भोजन कराना पूर्णतः निराधार है। मृत्यु भोज एक सामाजिक बुराई है। अतः सर्व समाज के समझदार लोगों को मृत्यु भोज पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।
डॉ. शशिवल्लभ शर्मा