ग़ज़ल
सितम ए आसमाँ, ऐसा ज़मीं पर हो नहीं सकता
मेरे जीते-जी ये हो जाए बंजर, हो नहीं सकता
यही सच्चाई भी है, हम से बेहतर हो नहीं सकता
कोई कुछ भी हो लेकिन वो सुख़नवर हो नहीं सकता
मुसलसल जाने कितनी नदियों का यह ख़ून पीता है
समन्दर अपने बूते पर समन्दर हो नहीं सकता
भलाई है इसी में मोड़ कर रक्खें हम अपने पाँव
किसी भी हाल में लंबी हो चादर, हो नहीं सकता
बना कर देखता हूँ तेरी इक तस्वीर काग़ज़ पर
सुना है फूल कागज़ का मुअत्तर हो नहीं सकता