कर्ज
आज नीलू और नीलेश अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर आए थे. इतने दिनों तक वे दोनों अलग-अलग वॉर्डों में थे, इसलिए आपस में एक दूसरे को ढाढ़स भी नहीं बंधा पाए थे. हाल-चाल भी लेना-देना था.
”जानते हैं, उस दिन क्या हुआ था?” नीलू ने कहा.
”मैं कैसे जानूंगा जानू, मैं तो बेहोश था!”
”उस दिन गाड़ी की टक्कर से हमारा काइनैटिक होंडा एक ओर, मैं दूसरी ओर और आपकी आंख के पास चोट लगने से सड़क पर खून के थक्के, बदहाली का आलम था!”
”अच्छा तुम्हें सब याद है?”
”कैसे भूल पाऊंगी उस दिन को? मैं तो अपने पैर की कटी उंगली को भूलकर बस आपकी तरफ देखे जा रही थी. तभी ऐसा लगा जैसे सारे देवता धरती पर उतर आए हों! एक हट्टे-कट्टे सज्जन ने आपको गोद में उठाकर पटरी पर लिटाया, किसी ने मुझे उठाकर बिठा दिया, किसी ने स्कूटर के चारों ओर घेरा डाल दिया, किसी ने 100 नं. पर फोन कर दिया. दो मिनट में पुलिस की जिप्सी भी आ गई थी. हम दोनों जिप्सी में बैठे. जिप्सी चलने ही वाली थी कि एक कार दौड़ती हुई आई और जिप्सी को रोक दिया.”
”बहिनजी, आपको पता है कि आपके स्कूटर को टक्कर किसने मारी?” मानस ने पूछा.
”मानस! मानस कौन?” नीलेश हैरान था.
”मैं क्या जानूं? ये देखो,” डायरी दिखाते हुए नीलू ने कहा- ”मेरा नाम मानस है. आपको एक टैक्सी ने टक्कर मारी थी. अपनी डायरी लाइए, मैं टैक्सी का नंबर लिख देता हूं. उसने अपना नाम और फोन नंबर भी लिख दिया है, ताकि जरूरत पड़ने पर वह गवाही देने आ सके.” नीलू के जख्म ताजा हो गए, मानो दुर्घटना उसी समय घटी हो.
”लाओ डायरी, मानस को धन्यवाद तो कह दें.” नीलेश ने मोबाइल हाथ में उठाते हुए कहा.
”अजी साहब, धन्यवाद कैसा! यह तो किसी जन्म का हमारा-आपका रिश्ता था!” मानस कह रहा था- ”मैं तो खुद बहुत परेशानी में था. मैडम को ब्लड चढ़वाने जा रहा था. मस्तिष्क कह रहा था छोड़ परे, तुझे देर हो रही है! मन ने कहा, हमारी परेशानी से आपकी परेशानी ज्यादा है. टैक्सी ने रैड लाइट जंप करके टक्कर मारी थी. मैं चश्मदीद गवाह था. कार में था, इसलिए गाड़ी दौड़ाकर टैक्सी का नंबर नोट कर दो किलोमीटर वापिस आया. भले ही 20 मिनट फालतू लग गए, पर मेरे मन में कर्त्तव्यपालन का संतोष है. आपको यह जानकर खुशी होगी, कि उस दिन डॉक्टर ने मेरी पत्नि को ब्लड भी नहीं चढ़ाया. उन्होंने जांच करके बताया कि सब कुछ नॉर्मल हो गया है, अब शायद खून चढ़ाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. यह कर्ज था या कर्त्तव्य! पर आपकी कुशलता जानकर मन बहुत प्रसन्न हो रहा है. कभी आएंगे हम आपसे मिलने. अब फोन रख रहा हूं, आप लोग आराम करिए.”
नीलेश खुद नहीं समझ पा रहा था, कि कर्ज चढ़ा है या चुकता हुआ है!
कभी-कभी ऐसा भी होता है. हमारी एक सह अध्यापिका भटनागर एक दूसरी सह अध्यापिकाबख्शी के लिए रोज मध्यांतर के लिए लंच बॉक्स बनाकर लाती थी. भटनागर को लंच बॉक्स तैयार करने का समय मिल जाता था, बख्शी एक रोटी सेंकने का भी समय नहीं निकाल पाती थी. बख्शी बड़े प्रेम से वह भोजन खाती और तृप्ति पा जाती, पर उसके मन में कर्ज चढ़ने का अपराध बोध बना रहता, जिसे वह यदा-कदा शब्दों में व्यक्त करती थी. मैं उससे कहती- ”ऐसा क्यों सोचती हो कि कर्ज चढ़ रहा है, ऐसा भी तो हो सकता है कि किसी जन्म का कर्ज चुकता हो रहा है!” स्टॉफ की शेष सभी सह अध्यापिकाएं इस बात का अनुमोदन कर उसे शांत करतीं.