सामाजिक

मणिपुर की कबुई जनजाति की जीवन शैली और धार्मिक विश्वास

कबुई मणिपुर के 29 आदिवासी समुदायों में से एक है I कबुई जनजाति ने अन्य समुदायों जैसे मीतै और मीतै पंगन (मणिपुरी मुसलमान) के साथ बहुत अच्छे संबंध स्थापित कर लिए हैं । मणिपुर की राजधानी इम्फाल के पूर्वी और पश्चिमी भाग में भी ये बसे हुए हैं। मिजोरम और मणिपुर की अन्य जनजातियों की तरह कबुई समुदाय की भी मान्यता है कि उनकी उत्पत्ति एक मिथकीय गुफा से हुई है I मान्यता है कि वह गुफा चीन में किसी स्थान पर अवस्थित थी जिसकी पहरेदारी एक बाघ करता था I जब जनसंख्या बढ़ गई और गुफा में रहने के लिए जगह कम पड़ने लगी तो इस समुदाय के पूर्वजों ने बाघ को मार दिया और गुफा से निकलकर अन्यत्र अपना आवास बनाया I कबुई जनजाति की अपनी अलग और विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक और भाषाई विविधता और आनुवंशिक पहचान है। ‘कबुई’ का शाब्दिक अर्थ और इसकी उत्पत्ति के संबंध में निश्चित रूप से कुछ कहना अत्यंत कठिन है I अब कबुई समुदाय के लोग खुद को ‘रोंगमेई’ कहते हैं I ‘रोंगमेई’ दो शब्दों ‘रोंग’ और ‘मेई’ के योग से बना है जिसका अर्थ क्रमशः ‘दक्षिण’ और ‘लोग’ है । इस प्रकार रोंगमेई का अर्थ ‘दक्षिण के लोग’ होता है I यह इस समुदाय के आरंभिक निवास की ओर संकेत करता है I वर्तमान समय में मणिपुर के भीतर और बाहर ‘कबुई’ शब्द का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है एवं ‘रोंगमेई’ नाम अन्य समुदायों के लिए अल्पज्ञात है। मणिपुरी साहित्य में सर्वत्र ‘कबुई’ शब्द का ही प्रयोग किया गया है I इस समुदाय के लोकगीतों, लोककथाओं और मिथकों में भी ‘कबुई’ शब्द का प्रयोग किया गया है I ब्रिटिशकालीन प्रशासनिक रिपोर्टों, जनगणना आदि में भी ‘कबुई’ शब्द का ही प्रयोग किया गया है I अनेक दशकों से ‘कबुई’ और ‘रोंगमेई’ शब्द का प्रयोग पर्याय के रूप में किया जा रहा है I मणिपुर के कबुई समुदाय का मूल निवास तामेंगलांग क्षेत्र में था जो मणिपुर की पश्चिमी सीमा पर स्थित पहाड़ी क्षेत्र में स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि मणिपुर की घाटी के निवासी तमेंगलोंग क्षेत्र से आए थे। इम्फाल में लगभग एक शताब्दी पूर्व में कबुई समुदाय के लोग आकर बसे थे । कबुई मंगोलियाई नस्ल के तिब्बती – बर्मन परिवार के अंतर्गत आते हैं। ऐसा विश्वास है कि कबुई समेत कई मंगोलियाई नस्ल के आदिवासी समूह चीन की यांग्त्ज़ी और ह्वांग हो नदियों के ऊपरी भाग में बसे हुए थे। कबुई जनजाति को भारतीय संविधान की जनजातियों में सूचीबद्ध किया गया है । इस जनजाति की सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताओं और रीति – रिवाजों पर आसपास के वातावरण का व्यापक प्रभाव है । वे प्रकृति के सान्निध्य में रहते हैं I इसलिए उनकी जीवन शैली पर प्राकृतिक वातावरण का गहरा प्रभाव है। कबुई समुदाय के गाँव आमतौर पर आकार में छोटे होते हैं और इनके घर दूर – दूर में बिखरे होते हैं । प्रत्येक गाँव में एक मुखिया होता है जिसे ‘खुलकपु’ (खुलकपा) कहा जाता है। गाँव में “पैकई” नामक एक सभा भवन होता है I यहाँ गाँव की सभी समस्याओं पर विचार – विमर्श किया जाता है I यहां लोगों को अपने विचार व्यक्त करने की पूरी स्वतंत्रता होती है I काफी विचार – विमर्श के बाद समस्याओं का समाधान किया जाता है I आमतौर पर इस समाज में चोरी और हिंसक अपराध नहीं घटित होते हैं। इस जनजाति में अधिकांशतः एकल परिवार पाए जाते हैं I यह एक पितृसत्तात्मक समाज है I पिता परिवार का मुखिया होता है I परिवार में पति – पत्नी और उसके अविवाहित बच्चे रहते हैं I सबसे बड़ा पुत्र पिता की संपत्ति का वारिस होता है और पिता की मृत्यु के बाद वही घर का मालिक बनता है I बड़ा पुत्र अपने माता – पिता और अविवाहित भाई – बहनों की देखभाल करता है I अन्य पुत्रों को पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलता है I विवाह के बाद अन्य पुत्रों को अपने पैतृक मकान को छोड़ना पड़ता है परंतु सबसे छोटा पुत्र उसी मकान में रहता है I संपत्ति पर पुरुषों का अधिकार होता है, महिलाएं संपत्ति पर अपना दावा नहीं कर सकती हैं I पुत्र नहीं होने पर व्यक्ति के निकटतम पुरुष संबंधी को उसकी संपत्ति मिल जाती है I महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करती हैं I महिलाएं हल्के कार्य करती हैं, जैसे- बच्चों की देखभाल करना, खाना और शराब तैयार करना, नजदीक के जलस्रोत से पानी लाना, जलावन एकत्र करना, झूम खेतों में कार्य करना इत्यादि I महिलाएं हल नहीं चलाती हैं I परिवार के मामलों में पुरुष घर की महिलाओं से सलाह लेकर काम करते हैं लेकिन सार्वजनिक, धार्मिक, राजनीतिक और गाँव से संबंधित मामलों में महिलाएं कोई दखल नहीं दे सकती हैं I इस समाज में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत निम्न है I रोंगमेई समाज को मोटे तौर पर चार गोत्रों में विभाजित किया गया है – कमेई, गोनमेई, गंगमेई और लोंगमेई I ऐसा विश्वास है कि इन गोत्रों के सदस्य चार अलग – अलग पूर्वजों के वंशज हैं I इन कुलों (गोत्रों) के भी अनेक उपकुल हैं I कमेई के छह उपकुल हैं – i)मरंगमेई ii)मरंगपोंगमेई iii)फावमेई iv)पम्मेई v)कमदंगमेई vi)कमसोन I गोनमेई गोत्र के आठ उपगोत्र हैं –i)गोनतंगमेई ii)गोंदईमेई iii)रेम्मेई iv)मरिंगमेई v)दहंगमेई vi)पनमेई vii)थाईमेई viii)गोन – गंगमेई I इसी तरह गंगमेई गोत्र के चार उपगोत्र हैं – i)फेईगा – गंग ii)सीदोऊ – गंग iii)जुखावगंग और iv)कमहंग – मेई – गंग I इन गोत्रों के बीच परस्पर विवाह होते हैं I सामाजिक रूप से इन कुलों में कोई उच्च – नीच का भाव नहीं है और ये सभी सामान माने जाते हैं I
इस समाज में बहुविवाह प्रथा है, लेकिन इसे हेय समझा जाता है I बहुपति विवाह का अस्तित्व नहीं है I इस जनजाति में समगोत्रीय विवाह करना वर्जित है I इस समाज में विवाह के तीन प्रकार हैं – बातचीत द्वारा विवाह, सहपलायन द्वारा विवाह और जबरदस्ती विवाह I इस समाज में अधिकांश विवाह बातचीत से तय किए जाते हैं I अनेक मामले ऐसे भी देखने को मिलते हैं कि लड़का लड़की अपनी पसंद के अनुसार अपने जीवन साथी का चयन कर लेते हैं और बाद में अपने – अपने माता- पिता को इसकी सूचना देते हैं I सामान्य तौर पर लड़के के परिवार द्वारा विवाह के लिए पहल की जाती है I इस समुदाय में वधू मूल्य की परंपरा है जिसका भुगतान किसी वस्तु के रूप में किया जाता है I विभिन्न गोत्रों और विभिन्न परिवारों में वधू मूल्य भुगतान की प्रक्रिया और मात्रा में थोड़ा – बहुत अंतर पाया जाता है I सहपलायन द्वारा विवाह की स्थिति में भी दोनों पक्षों के बीच बातचीत होती है I तीसरे प्रकार के विवाह अर्थात जबरदस्ती विवाह को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है I इस विवाह में लड़का किसी लड़की का अपहरण कर लेता है I लड़की के माता – पिता अपनी पुत्री की तलाश करते हैं I यदि लड़की सहमत होती है तो उसके माता – पिता लड़की की शादी कर देते हैं I यदि लड़की – लड़की में सहमति नहीं होती है तो लड़के को ग्राम प्राधिकारी द्वारा दण्डित किया जाता है I शादी की पारंपरिक नागा प्रणालियों के अलावा कबुई समुदाय की अपनी कुछ अनूठी परम्पराएं भी हैं । इस समुदाय में ‘नौमंग-मेई-नोउ-काओ’ का रिवाज है I यह एक ऐसी प्रणाली है जो एक लड़के को अपने पति के रूप में तीन से चार साल तक किसी लड़की के घर में रहने की अनुमति देती है। दोनों पक्षों के समझौते के अनुसार इस रिवाज का पालन किया जाता है और समय पूरा होने के बाद लड़का अपने घर लौट जाता है। इस समाज में ‘चमेमेई’ का रिवाज भी है I किसी लड़की की शादी उसकी सहमति के बिना ऋण के पुनर्भुगतान के लिए की जाती है उसे ‘चमेमेई’ प्रथा कहा जाता है । ‘नाओकाखोमेई’ अनुष्ठान के द्वारा किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके करीबी भाई को उसकी विधवा के साथ पुनर्विवाह करने की अनुमति देता है I इस पारंपरिक विवाह प्रथा के अनुसार विधवा से पुनर्विवाह करनेवाले का दायित्व होता है कि वह उसके परिवार की देखभाल करे । कबुई लोग खूब गहने पहनते हैं। पुरुष और महिला दोनों अपने कान छिदवाते हैं। पुरुष आमतौर पर अपने कानों में पंख पहनते हैं, लेकिन महिलाएं पारंपरिक रूप से पीतल की अंगूठी धारण करती हैं। कबुई समुदाय का धर्म मानव की बुनियादी जरूरतों के अनुसार निर्धारित किया गया है I इनके धर्म में जादू – टोना भी शामिल है I कई आदिवासी अभी भी पारंपरिक आदिवासी प्रथाओं का पालन करते हैं। उनका मानना है कि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि देना आवश्यक है अन्यथा देवी – देवता क्रोधित हो जाएँगे I इस समुदाय के लिए कृषि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है I इसलिए वे देवी – देवताओं को पशु बलि के द्वारा प्रसन्न करते हैं ताकि अच्छी फसल हो एवं घर अन्न से भरा रहे I ईसाई मिशनरियों के प्रभाव के कारण अनेक परिवारों ने ईसाई धर्म को अंगीकार कर लिया है, फिर भी अधिकांश कबुई लोग प्राचीन पारंपरिक प्रथाओं का पालन करते हैं। कबुई समाज के पर्व – त्योहार भी आसपास की जलवायु से निकट से जुड़े हुए हैं । इनके त्योहार और समारोह आमतौर पर कृषि के विभिन्न चरणों को प्रतिबिंबित करते हैं। समारोहों में शारीरिक कौशल और प्रतिभा को अभिव्यक्त करने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है। इनके कुछ महत्वपूर्ण त्योहार हैं – गंग-नगाई, रिह-नगाई (छगा नगाई) और गुडुई-नगाई। गंग-नगाई (Gang- Ngai) कबुई नागा का प्रमुख त्योहार है I दिसंबर – जनवरी महीने में पांच दिनों तक मनाया जानेवाला गंग-नगाई त्योहार राज्य के विविध संप्रदायों के रीति-रिवाजों और धर्मों से परिचित होने का अवसर प्रदान करता है। कबुई नागा समुदाय अपनी जीवन शैली, संस्कृति और अपने धर्म को व्यक्त करने के इस अवसर का पूरे साल इंतजार करते रहते हैं। वे इस पांच दिवसीय त्योहार में संगीत, नृत्य, दावत का भरपूर आनंद लेते हैं। गंग – नगाई त्योहार शगुन समारोह से शुरू होता है। त्योहार के प्रथम दिन कबुई नागा पवित्र अनुष्ठानों के माध्यम से अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। इसके बाद चार दिनों तक लगातार उत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर सामुदायिक दावतें, संगीत और नृत्य प्रदर्शन के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जो दर्शकों के स्मृति पटल पर लंबे समय तक कायम रहते हैं। गंग-नगाई त्योहार के माध्यम से कबुई नागाओं को अपने धर्म के संरक्षण और सुरक्षा के लिए प्रोत्साहन मिलता है। रंगीन पारंपरिक वेशभूषा में वाद्ययंत्रों की धुनों पर नाचते हुए पुरुषों और महिलाओं से भरी सड़कें एक सुंदर दृश्य उपस्थित करती हैं। इस त्योहार के अवसर पर दोस्तों और परिवारों के बीच उपहारों का आदान-प्रदान भी किया जाता है। रिह नगाई (छगा नगाई) युद्ध से सम्बंधित त्योहार है I यह त्योहार केवल पुरुषों द्वारा मनाया जाता है। त्योहार के समय पुरुषों को महिलाओं से अलग रहना पड़ता है I पुरुष महिलाओं द्वारा पकाया जानेवाला भोजन भी नहीं ग्रहण कर सकते हैं । इस त्योहार के दौरान अजनबियों को गाँव में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। ‘गुडुई-नगाई’ त्योहार बुवाई के मौसम में मनाया जाता है। लोग बुवाई के लिए खेतों को साफ करने के बाद अदरक का रस पीकर इस त्योहार को मनाते हैं। पुरुषों और महिलाओं के बीच एक प्रतियोगिता आयोजित की जाती है । यदि इसमें लड़कियां विजयी होती हैं तो इसे एक अच्छा शगुन माना जाता है I ऐसा विश्वास है कि महिलाओं की विजय अच्छी फसल का प्रतीक है। विभिन्न त्योहारों के दौरान विभिन्न प्रकार के नृत्य प्रतुत किए जाते हैं I नर्तक – नर्तकी रंग-बिरंगे परिधानों को धारण कर पूरी तन्मयता के साथ नृत्य करते हैं I वे नृत्य करने के समय विभिन्न प्रकार के आभूषण और हॉर्नबिल के पंख धारण किए रहते हैं । नर्तक पूरे दिन और पूरी रात थिरकते हुए ढोल और वायलिन जैसे वाद्य यंत्र के साथ प्रदर्शन करते हैं।
कबुई समाज का प्रधान भोजन चावल है। इसे मांस या सब्जियों के साथ दिन में दो बार खाया जाता है। सूखी मछली को येलोग बहुत पसंद करते हैं और लगभग हर दिन के भोजन में यह शामिल होता है। कबुई मांस और मांसाहारी भोजन के शौकीन हैं। मांस को आग पर सुखाकर भविष्य में उपयोग करने के लिए संग्रहित किया जाता है। ‘जोऊ’ और ‘जंग ओऊ’ इनकी स्थानीय मदिरा है I विवाह जैसे उत्सवों और अन्य आयोजनों में ‘जंग जोउ’ इनका पसंदीदा पेय है। येलोग चाय भी पीते हैं I येलोग पान के पत्ते के साथ चूना और कच्ची सुपारी चबाते हैं । कृषि इस समुदाय के लिए आजीविका का मुख्य साधन है। इस समाज के लोग शानदार तरीके से झूम खेती करते हैं । येलोग पशुपालन भी करते हैं । कबुई लोग बांस, लकड़ी, लोहे और मिट्टी की वस्तुएं बनाने में भी कुशल हैं। यहां कच्चा माल आसानी से उपलब्ध है। बाँस की टोकरियाँ, चटाई, लकड़ी की वस्तुएं आदि में इनकी हस्तकला की बारीक कलाकारी देखी जा सकती है। सामान्यतः इस समुदाय के लोग बहुदेववादी होते हैं I इस समाज के अनेक देवी – देवता हैं जिनकी समय – समय पर पूजा की जाती है I इस समुदाय में एक कुल देवता होता है जिसका नाम ‘कैराव’ है I इसी प्रकार ग्राम देवता का नाम ‘भमबू’ है जो गाँव के अभिभावक और रक्षक होते हैं I ‘भमबू’ भी दो होते हैं- एक गाँव के उत्तर में और दूसरे गाँव के दक्षिण में रहते हैं I पारंपरिक रूप से इन देवी – देवताओं के मंदिर नहीं होते हैं I सामान्यतः गाँव के दक्षिण और उत्तर छोर पर देवी – देवताओं के लिए सुरक्षित स्थान निर्धारित होते हैं I यहाँ पर कोई मूर्ति नहीं होती, कुछ पत्थर स्थापित किए जाते हैं जो विभिन्न देवताओं के प्रतीक होते हैं I इस समाज के पारंपरिक ग्राम्य प्रशासन में बुजुर्गों का वर्चस्व है I इसमें महिलाओं का कोई स्थान नहीं है I परिषद में कुछ युवाओं को जगह दी जाती है लेकिन उन्हें महत्वहीन पद दे दिए जाते हैं I ग्राम परिषद को ‘पेई’ कहा जाता है I ‘पेई’ के सदस्य अवैतनिक रूप से कार्य करते हैं I पेई में ‘न्हामपोऊ’ (Nhampou) और ‘न्हामपेई’ (Nhampei) होते हैं जिन्हें बाद में ‘खुनबु’ और ‘खुल्लक’ (Khunbu and Khullak) कहा गया I प्राचीनकाल में गाँव की सभी भूमि ‘न्हामपोऊ’ और ‘न्हामपेई’ की मानी जाती थी, लेकन व्यावहारिक रूप में ये भूमि विभिन्न गोत्र समूहों की होती थी I गाँव के सभी मामलों में ‘न्हामपोऊ’ और ‘न्हामपेई’ की अग्रणी भूमिका होती थी I वास्तव में वे गाँव का नेतृत्व और मार्गदर्शन करते हैं I बुजुर्ग ग्राम परिषद के पास विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संबंधी सभी कार्य और अधिकार होते हैं I परिषद द्वारा सिविल और आपराधिक दोनों प्रकार के मामले का निपटारा किया जाता है I वह सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित और उचित निदेश जारी करती है I

*वीरेन्द्र परमार

जन्म स्थान:- ग्राम+पोस्ट-जयमल डुमरी, जिला:- मुजफ्फरपुर(बिहार) -843107, जन्मतिथि:-10 मार्च 1962, शिक्षा:- एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन, प्रकाशित पुस्तकें :1.अरुणाचल का लोकजीवन 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य 3.हिंदी सेवी संस्था कोश 4.राजभाषा विमर्श 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय 6.हिंदी : राजभाषा, जनभाषा,विश्वभाषा 7.पूर्वोत्तर भारत : अतुल्य भारत 8.असम : लोकजीवन और संस्कृति 9.मेघालय : लोकजीवन और संस्कृति 10.त्रिपुरा : लोकजीवन और संस्कृति 11.नागालैंड : लोकजीवन और संस्कृति 12.पूर्वोत्तर भारत की नागा और कुकी–चीन जनजातियाँ 13.उत्तर–पूर्वी भारत के आदिवासी 14.पूर्वोत्तर भारत के पर्व–त्योहार 15.पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक आयाम 16.यतो अधर्मः ततो जयः (व्यंग्य संग्रह) 17.मणिपुर : भारत का मणिमुकुट 18.उत्तर-पूर्वी भारत का लोक साहित्य 19.अरुणाचल प्रदेश : लोकजीवन और संस्कृति 20.असम : आदिवासी और लोक साहित्य 21.मिजोरम : आदिवासी और लोक साहित्य 22.पूर्वोत्तर भारत : धर्म और संस्कृति 23.पूर्वोत्तर भारत कोश (तीन खंड) 24.आदिवासी संस्कृति 25.समय होत बलवान (डायरी) 26.समय समर्थ गुरु (डायरी) 27.सिक्किम : लोकजीवन और संस्कृति 28.फूलों का देश नीदरलैंड (यात्रा संस्मरण) I मोबाइल-9868200085, ईमेल:- [email protected]