गज़ल
चलते हैं किसी ऐसी दुनिया में जहां कोई न हो
एक तुम रहो, एक मैं रहूँ दरमियां कोई न हो
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आग में जलकर निखर जाता है सोना और भी
क्या मज़ा है इश्क़ का गर इम्तिहां कोई न हो
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हर कोई है मगरूर तेरे शहर में जिससे मिलो
एक शख़्स ऐसा नहीं जिसको गुमां कोई न हो
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भूल कर शिकवे गिले सारे चलो ये अहद लें
अब किसी की मुश्किलों पर शादमां कोई न हो
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क्या मज़ा देगा किसी के कंधों पर सफर आखिरी
साथ चलने को जब अपनी दास्तां कोई न हो
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।