सदाबहार काव्यालय: तीसरा संकलन- 12
सर्दी की वो धूप !
माँ! आज देखा जो तेरा कंगना,
याद आ गया बचपन का अपना अंगन।
चमकती धूप जहाँ खिलखिलाती थी,
सुस्ती भरी अँगड़ाइयों की झड़ी लग जाती थी।
“ऐ ले लो साग”, बाहर कोई आंटी चिल्लाती थी,
सर पर रखी उनकी बड़ी-सी टोकरी एक हाथ से संभल जाती थी।
कभी ऐसा सुना है आम बेचने वाला जो कहता हो,
“अम्ब जी तुस्सी बड़े मिट्ठे हो” गली-गली गाता हो।
सुस्ताने के अलावा अपना नहीं था कोई काम,
जहाँ एक चारपाई थी गाजर, गोभी, शलगम के नाम।
वो तुम्हारा सिलाइयों में उलझे रहना,
और हमारा मूँगफली के छिलकों से खेलना।
“कुछ पढ़ लो पेपर सर पर हैं”, तुम्हारा कहना,
हमारा, “हाँ जी बस चली”, कह कर टालना।
कभी सूरज की कड़कन से आँख-मिचौली खेलते,
पढ़ाई में ध्यान लग भी जाता था,
शॉल को टेंट बनाते-बनाते सारा समय निकल जाता था।
फिर दोपहर की शांति में पड़ोस से
कड़क मूँगफली की इक तड़क गूँजती थी,
तो हमारे मुँह में मानो सुनामी की लहरें उठती थीं।
आज वो कुछ जुराबें-टोपियाँ अलमारी में मिलीं,
मानो मुझे देख उनकी ऊन भी खिली।
इतनी गर्मी कहाँ इन ‘मॉलों’ के स्वेटर की ऊन में है!,
माँ और दादी-नानी के हाथों की ख़ुशबू तो मेरे पिटारे में बंद है।
दादी के हाथ की शफ़ा घर के खाने में ख़ूब छलकती थी,
तुम्हारी और उनकी हँसी जब अचार और कांजी में घुलती थी।
खिड़की में पड़े काँच के मर्तबान की चाशनी हीरे-सी चमकती थी,
उस मुरब्बे की मिठास दादी की मुस्कान-सी मासूम लगती थी।
कितने तरह के अचार यूँ नाज़ुक सफ़ेद-भूरे मर्तबानों में सेक लेते थे,
शाम को उन्हें घर के अंदर ले जाने के चक्कर लगते थे।
जब हम जिद्द करते कि ज़रा तुम्हारा हाथ बँटा दें,
तुम्हारे दिल में उनके टूट जाने के अजीब भ्रम उठते थे।
मक्की की रोटी की गर्माइश से घी और गुड़ पिघल जाता था,
“इससे वज़न नहीं बढ़ता”, ऐसा तुम्हारा प्यार समझाता था।
नए साल का प्रोग्राम टीवी पर देख
गुड़-पट्टी के साथ पार्टी टाइम हो जाता था,
ये भीड़ में ऊँचे गानों पर नाचने का शौक़
तब तक हमने नहीं पाला था।
देसी आदतें और देसी नुस्ख़े तब इतने समझ नहीं थे आते,
आज उन सब को याद कर बिगड़ी देह हैं सुधारते।
वो खट्टी कांजी की ख़ुशबू, वो मीठे मुरब्बे की मिठास,
कभी भुला ना पाऊँगी वो दिन जो हमेशा रहेंगे इतने ही ख़ास।
-श्रुति (महेंदीरत्ता) चौधरी
संक्षिप्त परिचय-
पसंद से एक रचनात्मक लेखक और पेशे से एक आईटी व्यक्ति, श्रुति अपने लेखन का उपयोग अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना पसंद करती है क्योंकि वह मानती है कि अपने विचारों को सामने रखने से समाज की सोचने और अभिनय करने के तरीके पर फर्क पड़ता है। वह दृढ़ता से मानती हैं कि हम समाज हैं। वह सामान्य लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर लिखना पसंद करती हैं जो दैनिक जीवन से संबंधित हैं, जैसे कि स्वास्थ्य, फिटनेस, मनोविज्ञान, सामान्य विश्वास, सामाजिक वर्जनाएं, बदलती जीवन शैली आदि। इन्हें घूमना और अपने अनुभवों को शब्दों के माध्यम से सबके साथ बाँटना पसंद है। इनका मानना है कि आप घूमने पर ना सिर्फ़ धन लगाते हैं बल्कि यादें भी कमाते हैं। वह अंग्रेजी और हिंदी में कविता करना पसंद करती है। श्रुति अभी करीब 15 साल से आईटी की दुनिया से जुड़ी हुई हैं। लेकिन अपने जुनून के लिए समय बनाने में सक्षम हैं और अपने अनुभव से बताती हैं की हर किसी को काम के अलावा, अपनी खुशी और संतुष्टि के लिए कुछ करना चाहिए, किसी और की जेब भरने के लिए केवल आधी रात तक तेल को जला सिर्फ़ अपना सुकून ना खोएं। वह मानती हैं कि हमारे जीवन में चीजों के सही समय का उल्लेख करने वाली कोई नियम पुस्तिका नहीं है और हमें इस सुंदर जीवन रूपी उपहार का आनंद लेना चाहिए क्योंकि जब जैसा होना है वैसा ही होता है। हर चीज़ और क्षण का अपना अपना पहला और निजी अनुभव होना चाहिए।
-श्रुति (महेंदीरत्ता) चौधरी
प्रिय सखी श्रुति जी, आपने हमारे ब्लॉग और सदाबहार काव्यालय में पहली बार दस्तक दी है, आपका हार्दिक स्वागत है. आपकी कविता सचमुच सदाबहार है और जब-जब पढ़ी-सुनी जाएगी, ममतामयी-कर्मठ मां की याद दिलाती रहेगी. मां तो बस मां ही होती है. हमारी हर क्रिया-प्रतिक्रिया में मां की छाप होती है, जो अनमिट होती है. मां तुझे सलाम! तेरी स्मृतियों को सलाम! सदाबहार काव्यालय के यज्ञ में सदाबहार कविता की आहुति देने के लिए हम आपके आभारी हैं.