क्रांतिधर्मी समाजवादी डॉ. लोहिया
क्रांतिधर्मी समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया की स्मृतिदिवस (12 अक्टूबर) है । जयप्रकाश नारायण, नानाजी देशमुख और राममनोहर लोहिया के बीच समानता तो है, एतदर्थ इन तीनों को निःसंकोच तुलना-त्रयी कहा जा सकता है । तीनों समाजवादी हैं, किन्तु राष्ट्रवादी हैं । तीनों को हिंदुत्व संस्कृति भाए हैं, किन्तु धर्मनिरपेक्षता को वे ‘मिस’ नहीं कर सकते थे । तीनों को सत्ता से मोह नहीं था, चाहते तो केंद्रीय सत्ता में अहम किरदार निभा सकते थे ! परंतु जेपी प्रधानमंत्री नहीं बने, नानाजी का नाम मोरारजी-मंत्रिमंडल के लिए शामिल होने पर भी वे उधर नहीं गए और लोहिया जी की बात ऐसे ही निराली है । तीनों भारत के रत्न हैं, हालांकि अटल सरकार ने जेपी को और मोदी सरकार ने नानाजी देशमुख को ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किये, दोनों को मरणोपरांत । अब डॉ. लोहिया को भारतरत्न से विभूषित किये जाने की बारी है।
जहाँ जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति का विगुल फूँक प्रियदर्शिनी इंदु गांधी की चूलें हिला कर रख दी, तो वहीं राममनोहर लोहिया भी इंदु से हिसाब मांगने लगे । बकौल लोहिया– ‘ज़िंदा कौमें पाँच बरस इंतज़ार नहीं करती ।’ हालांकि लोहिया के अंदर आर एस एस का आदर्शवाद रूप गृह था, किन्तु जब गांधीजी की हत्या पर जब आर एस एस को घसीटा गया था, तो जेपी ने डंके की चोट पर न केवल आर एस एस का बचाव किया था, अपितु चट्टान की भांति अडिग होकर कहा था– ‘अगर वो अपराधी है, तो मैं भी अपराधी हूँ ।’ उत्तरप्रदेश जन्मस्थली थी, किन्तु सम्पूर्ण भारत लोहिया की कर्मस्थली थी । वे पंडित नेहरू को पलटनेवाले नट कहा करते थे । डॉ. लोहिया भले ही विदेश में भी शिक्षित हुए थे, किन्तु वे अंग्रेजी शिक्षा के विरूद्ध थे । विकिपीडिया के अनुसार, “3 जुलाई 1951 को समाजवादियों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में बुलाया गया। सम्मेलन में जर्मनी, युगोस्लाविया, अमेरिका, जापान, हांगकांग, थाईलैंड, सिंगापुर, मलाया, इंडोनेशिया तथा श्री लंका भी गए। लोहिया विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन से प्रिंसटन में मिले। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा, कि ‘किसी मनुष्य से मिलना कितना अच्छा होता है आदमी कितना अकेला पड़ जाता है।’ लोहिया ने अमरीका में सैकड़ों स्थानों पर भाषण किए। उस समय उन्होंने एशिया की समस्त सोशलिस्ट पार्टियों का संगठन निर्मित करने का विचार बनाया। सन 1952 के 25-29 मार्च 1952 में एशियाई सोशलिस्ट कान्फ्रेंस हुई, लेकिन इसमें लोहिया शामिल नहीं हो सके, किन्तु जयप्रकाश नरायण भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता बन कर बर्मा (रंगून) गए। 15 जून 1940 को गांधी जी ने स्वसम्पादित पत्रिका हरिजन में लिखा, ‘मैं युद्ध को गैर कानूनी मानता हूं किन्तु युद्ध के खिलाफ मेरे पास कोई योजना नहीं है इस वास्ते मैं युद्ध से सहमत हूं।’ 25 अगस्त को गांधी जी ने लिखा कि ‘लोहिया और दूसरे कांग्रेस वालों की सजाएं हिन्दुस्तान को बांधने वाली जंजीर को कमजोर बनाने वाले हथौड़े के प्रहार हैं। सरकार कांग्रेस को सिविल-नाफरमानी आरंभ करने और आखिरी प्रहार करने के लिए प्रेरित कर रही है। यद्यपि कांग्रेस उसे उस दिन तक के लिए स्थगित करना चाहती है जब तक इंग्लैंड मुसीबत में हो।’ गांधी जी ने बंबई में कहा, कि ‘जब तक डॉ॰ राममनोहर लोहिया जेल में है तब तक मैं खामोश नहीं बैठ सकता, उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालूम नहीं। उन्होंने हिंसा का प्रचार नहीं किया जो कुछ किया है उनसे उनका सम्मान बढ़ता है।’ 4 दिसम्बर 1941 को अचानक लोहिया को रिहा कर दिया गया तथा देश के अन्य जेलों में बंद कांग्रेस के नेताओं को छोड़ दिया गया। 19 अप्रैल 1942 को हरिजन में लोहिया का लेख ‘विश्वासघाती जापान या आत्मसंतुष्ट ब्रिटेन’ गांधी जी द्वारा प्रकाशित किया गया। गांधी जी ने टिप्पणी की– मेरी उम्मीद है कि सभी संबंधित इसके प्रति ध्यान देंगे।” स्मृतिदवस पर क्रांतिधर्मी संत डॉ. राममनोहर लोहिया को शत-शत नमन और सादर श्रद्धांजलि !