महामारी
माहमारी
21वीं सदी में भी ये बेचारगी
हाय! ये कैसी बेबसी
आज की ये आग लगाई किसने
गलियां सूनी, सड़कें सूनी
सूना है शहर और संसार
शून्य में आज भटक रहा
हर आम और खास इंसान
मजबूरी में पड़े हैं
आज सब दूर दूर खड़े हैं
कल कारखाने सब ठप पड़े हैं
विकास और नित नए आविष्कार करने वाले
आज सब मौन पड़े हैं
वैश्विक महामारी की विभीषिका
से सब त्रस्त हो रहे हैं
प्रयोगशाला से निकला विषाणु
समस्त विश्व को निगल रहा है
मौत है कि इंसानों को लील रहा है
कुछ इंसानों की गलती का खामियाजा
पूरा मानवजाति है झेल रहा
विकास की अंधी दौड़ ने
विश्वास का दामन छोड़ दिया
दुनिया को आज दशकों पीछे धकेल दिया
अर्थव्यवस्था चौपट हो गई
हर व्यक्ति आज दाने दाने संजो रहा
हमें वर्षों पहले की जीवनशैली
जीने की सीख दे रहा है
महामारी के संकट में
दिग्गज ढेर हुए
विश्वगुरु भारत की ओर
एक बार फिर बड़ी उम्मीद से देख रहा है
हम अपनी ही संस्कृति को छोड़ चले थे
आगे बढ़ चले थे ठोकर खाई
अब संभल रहे हैं
हम विरासत के मूल्यों को पहचान रहे हैं
जल्दी ही जिंदगी को पटरी पर ले आएंगे
फिर मुस्कुराता नया भारत होगा
दुनिया के नक्शे पर
एक नया चमकता सूरज होगा।
*******
भूख
तपने लगी है गरीबी माथे पर
छूटने लगे हैं पसीने….
भूख कांटे बनकर चुभने लगी है हर तरफ
छटपटाहट चिखने लगी है अंतस में
मन बेचैनियों का दास बनता जा रहा
नसे खींच रही बार-बार अंतड़ियों की
हाहाकार सा मच रहा तनमन में
कंकाल शरीर बंजारा बन भटक रहा दर-दर
काश ! कहीं तो रोटी की खुशबू दे एक पहर
पेट की जलन से राहत
तांडव कर रहा भूख गरीब के भीतर
रोता है वो लगातार चीख-सीखकर
उम्मीद की आस में
इस धरती पर कोई तो बनेगा उसका पालनहार
जो उसके कंकाल शरीर में कुछ मांस थोप दें
ताकि ढह चुकी उसकी मनुष्यों वाली बनावट को
फिर से एकबार आकार मिल जाए……