मनुष्य को ईश्वर और आत्मा के सत्यस्वरूप को जानना चाहिये
ओ३म्
मनुष्य एक ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम प्राणी को कहते हैं। मनुष्य नाम मनुष्य के मननशील व सत्यासत्य का विवेक करने के कारण पड़ा है। वेदों में मनुष्य के लिए कहा गया है ‘मनुर्भव’ अर्थात् ‘हे मनुष्य! तू मनुष्य बन।’ इसका अर्थ है कि परमात्मा ने सभी मनुष्यों को प्रेरणा की है कि तुम मननशील अर्थात् सत्य व असत्य का विचार करने वाले तथा सत्य को जानकर उसको आचरण में लाने वाले बनों। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह भाग्यशाली हैं और अपने मनुष्य होने के कर्तव्य को पूरा करते हैं। कुछ व बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जिन्होंने कुछ मौलिक प्रश्नों पर कभी विचार ही नहीं किया होता। ऐसे मौलिक प्रश्न अनेक हैं परन्तु कुछ मुख्य प्रश्न हैं हम कौन हैं? यह संसार किससे, कब व कैसे अस्तित्व में आया? हमारे कर्तव्य क्या हैं? इस जन्म से पहले हमारा अस्तित्व था या नहीं? मृत्यु के बाद आत्मा रहता है या नहीं? मरने के बाद यदि जीवात्मा रहता है तो उसकी क्या गति व स्थिति होती है? मनुष्यों के जीवन में जो दुःख आते हैं उनसे वह कैसे मुक्त हो सकता है? परमात्मा और आत्मा के परस्पर क्या सम्बन्ध हैं? परमात्मा और आत्मा का सत्यस्वरूप तथा इनके गुण, कर्म व स्वभाव क्या हैं? ऐसे अनेक प्रश्न हो सकते हैं जिनके सत्य उत्तर प्रत्येक मनुष्य को ज्ञात होने चाहिये परन्तु ऐसा देखने में आता है कि इन प्रश्नों के सत्य उत्तर तो हमारे बड़े बड़े आचार्यों एवं विद्वानों को भी पता नहीं है फिर सामान्य मनुष्य से इनकी अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
ऐसा नहीं है कि इन प्रश्नों के उत्तर विद्यमान व सुलभ नहीं है। इन प्रश्नों के सत्य व यथार्थ उत्तर मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में या तो हैं नहीं और यदि हैं तो वह अविद्या से युक्त व भ्रम उत्पन्न करने वाले हैं। ऐसे कुछ प्रश्नों के उत्तर जानने के लिये ही ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने लगभग सन् 1846 में अपना पितृगृह छोड़ कर सत्य का अनुसंधान किया था। वह लगभग 17 वर्षों के तप, पुरुषार्थ, अध्ययन, खोज, योगाभ्यास तथा वेद-वेदांगों के अध्ययन से इन प्रश्नों सहित जीवन की प्रायः सभी शंकाओं के उत्तर जानने में समर्थ हुए थे। उन्होंने ज्ञान, विद्या व योगाभ्यास से न केवल आत्मा, परमात्मा तथा सृष्टि विषयक प्रश्नों के उत्तरों को जाना था अपितु आत्मा तथा परमात्मा का साक्षात्कार भी किया था। विद्या प्राप्त कर तथा ईश्वर का साक्षात्कार कर वह निभ्र्रान्त हुए थे और अपने कर्तव्य को जानकर उन्होंने देश व समाज से अविद्या, अज्ञान तथा मिथ्या विश्वासों को दूर कर देश व समाज को सत्य विद्याओं से युक्त करने का संकल्प लिया था जिसे उन्होंने अपूर्व रीति से वेद प्रचार, ग्रन्थ लेखन, शास्त्रार्थ, समाज सुधार, अन्धविश्वास तथा कुरीतियों के उन्मूलन आदि कार्यों को करके पूरा किया। हम जब विचार करते हैं तो पाते हैं कि महाभारत युद्ध के बाद वेदों के विलुप्त होने वा ऋषि परम्पराओं के समाप्त होने के कारण देश में अविद्या का प्रसार हुआ था। इसी कारण से देश में अविद्या व अन्धविश्वासों सहित सामाजिक कुरतियों का प्रचार हुआ। ऋषि दयानन्द ने महाभारत युद्ध, जो पांच हजार वर्ष पूर्व हुआ था, पहले ऐसे ऋषि उत्पन्न हुए जिन्होंने वेदों को प्राप्त कर अपनी विद्या से उनके सत्य अर्थों का प्रकाश व प्रचार किया। उनके इस कार्य से देश देशान्तर के मनुष्य सामान्य व गूढ़ विषयों से सम्बन्धित सबके जानने योग्य प्रश्नों व शंकाओं का समाधान प्राप्त कर सकेे।
ऋषि दयानन्द ने अविद्या को दूर करने के लिये सत्यार्थप्रकाश नामक एक प्रमुख प्रतिनिधि ग्रन्थ का प्रणयन किया। इस एक ग्रन्थ से ही विश्व में विद्यमान अधिकांश अविद्या को दूर करने में सहायता मिलती है। ऋषि दयानन्द ने इस ग्रन्थ को लिखने से पूर्व व इसके बाद भी देश देशान्तर में घूम कर वेदों व वैदिक ज्ञान का प्रचार किया। सभी लोगों व मताचार्यों की शंकाओं का समाधान किया। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, सामाजिक भेदभाव तथा जन्मना जातिव्यवस्था आदि का विरोध किया और इनके वैदिक सत्य समाधान प्रस्तुत किये। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के अतिरिक्त ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा ऋग्वेद (आंशिक) तथा यजुर्वेद (सम्पूर्ण) का वेदभाष्यों सहित संस्कार विधि, पंचमहायज्ञविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानू, गोकरुणानिधि आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लिखा। संस्कृत अध्यापन हेतु आर्ष व्याकरण के ग्रन्थों का भी प्रणयन व प्रकाश भी ऋषि दयानन्द जी ने किया। उनके विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती तथा उन्होंने ही विलुप्त आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त प्रणाली को पुनर्जीवित किया। आज भी इस आर्ष व्याकरण प्रणाली से आर्यसमाज के गुरुकुलों में अध्यापन होता है जिससे अद्यावधि सहस्रों विद्वान तैयार हुए हैं। ऋषि दयानन्द के प्रचार व अविद्या दूर कर विद्या का प्रकाश करने के परिणामस्वरूप ऋषि की शिष्य परम्परा से हमें चारों वेदों सहित अनेक आर्ष प्राचीन ग्रन्थों के हिन्दी भाष्य तथा सहस्रों की संख्या आर्य ग्रन्थ व साहित्य प्राप्त हुआ है।
ऋषि दयानन्द के शिष्यों ने हजारों की संख्या में ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना आदि विषयक भजनों व गीतों सहित अनेक विषयों के गीत आदि भी लिखे हैं जिन्हें आर्यसमाज के अनुयायियों व इतर लोगों द्वारा गाया जाता है। ऋषि दयानन्द ने देश व समाज को सच्ची ईश्वरोपासना की विधि भी सिखाई है। इस हेतु उन्होंने पंचमहायज्ञ विधि लिख कर सन्ध्या तथा देवयज्ञ अग्निहोत्र का देश देशान्तर में प्रचार किया। आज भी देश देशान्तर में उनके अनुयायी प्रतिदिन सन्ध्या व देवयज्ञ सहित सभी पंचमहायज्ञों को करते हैं जिससे समाज में सात्विक विचारों की वृद्धि तथा वातावरण एवं पर्यावरण की रक्षा होती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऋषि दयानन्द के कार्य व विचारों से हम मनुष्य के जानने योग्य सभी दुर्लभ महत्वपूर्ण प्रश्नों के सत्य उत्तरों व समाधान को प्राप्त हुए हैं। उनका दिया हुआ ज्ञान मनुष्य जाति की सबसे बड़ी सम्पदा है। यह सत्य है कि धन व सम्पत्ति का महत्व होता है, इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता परन्तु यह भी सत्य है कि मनुष्य के लिए सत्य ज्ञान व विद्या से बढ़कर कोई पदार्थ नहीं है। यह अमृत तुल्य सत्य ज्ञान यदि हमें महाभारत युद्ध के बाद किसी एक पुरुष व विद्वान से मिला है तो वह व्यक्ति केवल महर्षि दयानन्द सरस्वती हैं। उनकी शिष्य परम्परा के विद्वानों ने भी उनके ज्ञान की व्याख्या व विस्तार कर देश व समाज की प्रशंसनीय सेवा की है। अतः ऋषि दयानन्द का मानव जाति सहित देश व समाज की उन्नति में अपूर्व व सर्वाधिक योगदान है। उनकी सभी मान्यतायें वेदों पर आधारित होने के साथ साथ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक एवं सर्वाधिक उपयोगी हैं। इनके मार्गदर्शन लेने व इनको अपनाने से मुनष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। इससे मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
मनुष्य क्या है, इस प्रश्न पर विचार करने से विदित होता है कि मनुष्य एक मननशील प्राणी है। जीवित मनुष्य का शरीर उक सत्य, चेतन, अल्पज्ञ जीवात्मा तथा जड़ प्राकृतिक पदार्थों से निर्मित शरीर का अद्भुत संयोग है जो अपौरुषेय सत्ता ईश्वर द्वारा कराया जाता है। ईश्वर एक सत्य, चेतन तथा आनन्दस्वरूप सत्ता है। ईश्वर निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य और पवित्र है। इस स्वरूप वाले ईश्वर से ही हमारी यह सृष्टि बनी है व उसी के द्वारा इसका पालन हो रहा है। ईश्वर सभी चेतन, अल्पज्ञ तथा एकदेशी सत्ता जीवात्माओं के पिता व स्वामी के तुल्य हैं। जीवात्मा को सुख व मोक्ष प्रदान करने में सहायक होने के लिये वह जीवों के लिये इस सृष्टि की रचना व पालन करते हैं। जीवात्मा का स्वरूप सत्य, चित्त, एकदेशी, अल्पज्ञ, ससीम, जन्म व मृत्यु को प्राप्त होने वाली, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र सत्ता है। आत्मा अनादि, नित्य, अमर तथा अविनाशी है। अनादि काल से इसका जन्म व पुनर्जन्म का चक्र निरन्तर चल रहा है। मोक्ष पर्यन्त जीवात्मा का जन्म व मृत्यु क्रमशः होते रहते हैं।
जीवात्मा के कल्याण के लिये सृष्टि के आदि में परमात्मा वेदों का ज्ञान देते हैं। यह वेद ज्ञान आज भी अपने मूल स्वरूप में सुलभ है। परमात्मा का दिया वेद ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक वा ग्रन्थ है। इससे मनुष्य को अपने सभी कर्तव्यों का बोध होता है। निषिद्ध कर्मों का बोध भी वेदों में कराया गया है। मनुष्य को शुद्ध विचारों वाला तथा शुद्ध अन्न व भोजन का सेवन करने वाला होना चाहिये। इसी से आत्मा, मन व बुद्धि की उन्नति होती है। मांसाहार सर्वथा त्याज्य एवं निन्दनीय है। इससे मनुष्य की आत्मा का पतन होता है। सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वेदों व वैदिक मान्यताओं का अध्ययन व स्वाध्याय करें। ऋषियों की मान्यता है कि मनुष्य को प्रतिदिन नियमित रूप से सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय कर अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिये। ऐसा करने से हमारी सभी शंकाओं का स्वतः समाधान हो जाता है। सभी मनुष्यों को महर्षि दयानन्द जी का जीवन चरित्र भी पढ़ना चाहिये। इससे भी जीवन उन्नति की प्रेरणा मिलती है और अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का स्वाध्याय तो सभी मनुष्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये। इसके अध्ययन से मनुष्य की ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, कर्तव्य, अकर्तव्य, जीवन के उद्देश्य, उपासना आदि सभी शंकायें दूर हो जाती है। मनुष्य की आत्मा की उन्नति होकर योगाभ्यास आदि कर मनुष्य मोक्ष तक को प्राप्त हो सकता है। अतः मनुष्य जीवन में सभी उचित कार्यों को करते हुए मनुष्यों को वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय एवं तदनुकूल आचरण कर अपने जीवन को उत्तम व आदर्श बनाना चाहिये। यह सत्य है कि वेद, वेदानुकूल ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से ईश्वर व जीवात्मा सहित इस सृष्टि का सत्यस्वरूप जाना जाता है। अतः संसार को वेद, वैदिक साहित्य एवं सत्यार्थप्रकाश की शरण में आना चाहिये। इसी से विश्व व मनुष्य जाति का कल्याण होगा। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य