हर नज़र हर निगाह में नमी है
हर नज़र हर निगाह में नमी है,
स्नेह की बेहद अपनों में कमी है।
हर नजर किसी पर जमी है,
कुछ हंसतीं है कुछ में नमी है।
नजरों में खिल खिलाहट भरी है,
कहीं रुसवाइयों से सूखी जमीं है।
मजलूमों की नजरों में नमीं है,
किसी की अदावत से सनी हैं
ये प्रकृति है या आप ही ऐसे है,
नैतिक मूल्यों की बेहद कमी है।
अपना कौन, पराया कौन समझाये,
झुक जाओ, अपनों की ही जमीं है.
मैं एक अदना, कहाँ अम्बर,कहाँ जमीं,
छलकती है ऑंखें, जहाँ बंजर जमी है।
— संजीव ठाकुर