हर ओर है
हर ओर है शक का ज़हर तो क्या कीजिये। बारूदी है शहर शहर तो क्या कीजिये।।
सो जाता हूँ यूँ बार बार आँख मूँद के।
जब दूर दिख रही सहर तो क्या कीजिये।।
ज़ुबान हुई जा रही शहद में तरबतर।
दिल मे लिए बैठा ज़हर तो क्या कीजिये।।
ख्वाहिश हो या भूख अक्सर मार देता हूँ।
होती नहीं फिर भी गुज़र तो क्या कीजिये।।
हर बार जिता कर उसे, खुद हार जाता हूँ।
आदत हुई ऐसी अगर तो क्या कीजिये।।
चेताया भी था वक्त ने तो, चीख चीख कर।
फिर भी रहा वो बेखबर तो क्या कीजिये।।