ग़ज़ल
जब भी खंडित रिश्ते होते दुश्मन बनते यार।
खार कभी भी गुल नहीं बनते, गुल नहीं बनते खार।
जिसके पहले डंस ने सारा तन-मन ज़ख़्मी किया,
कीचड़ से उठा कर बिच्छू कर बैठे एतबार।
दीमक भांति ध्ीरे-ध्ीरे बंदे को खा जाता,
सौ बीमारी की जड़ जैसा होता है तकरार।
एतबार कभी ना करना तुम तेज़ हवा के ऊपर,
यह कोई इकरार नहीं करती ना करती इनकार।
गंदी जीभ यहां भी जाए झगड़े मोल उठाती,
म्यान में बंद ही अच्छी लगती दो धरी तलवार।
‘बालम’ बंदे का तो जीवन सांसों का मोहताज,
सिर्फ बहारों के आने से खिलता है गुलज़ार।
— बलविन्दर ‘बालम