सामाजिक

अरुणाचल प्रदेश की हिलमिरी जनजाति की जीवन शैली

अरुणाचल के लोअर सुबनसिरी और अपर सुबनसिरी जिले में हिलमीरी जनजाति का निवास है। श्री ई॰ टी॰ डाल्टन की मान्यता है कि मीरी एक असमी नाम है जो मूलतः असमवासियों द्वारा गिरिजनों के लिए प्रयुक्त हुआ जो रंगा घाटी के दफ़ला और दिहांग नदियों के मध्य में बसे हुए थे। हिल मीरी लोग कमला नदी के दोनों ओर बसे हैं। यह क्षेत्र घने वनों से आच्छादित और सुरम्य ऊंचे पर्वतों से घिरा हुआ है। इनके गाँव पहाड़ों की ढलान पर बसे हुए हैं। इनके गाँव गोत्र के नाम से जाने जाते हैं ,जैसे – बिनी, बिकु, गोचम, ताया इत्यादि। हिल मीरी समाज कई वर्गों में विभक्त है – तारबोतीया, पानीबोतीया, सरक, घासी और घाईघासी पाँच मुख्य वर्ग हैं। सुबनसिरी और ढोल नदी के बीच में बसे लोग घासी वर्ग के हैं। घाइघासी लोगों का निवास दापोरिजो के पश्चिम और असम के नार्थ लखीमपुर जिले के सीसी अनुमंडल के दक्षिण में हैं। सरक लोग सुबनसिरी और रंगा नदी के मध्य में एवं पानीबोतिया कमला नदी के उत्तर में बसे हैं। तारबोतिया की आबादी कमला नदी के दक्षिण में है। हिल मिरी के आस-पास में तागीन, निशि, आपातानी, गालौंग इत्यादि जनजातियाँ बसी है। इसलिए इन जनजातियों का हिल मिरी समाज पर गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। हिल मिरी जन शांत, भद्र, सरल और निष्कपट होते हैं। इस समाज में एकल परिवार प्रथा सामान्य है। परिवार में माता-पिता के अतिरिक्त उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। शादी के बाद पुत्र अपने लिए अलग आवास की व्यवस्था करता है। जब तक वह अपने लिए अलग घर की व्यवस्था नहीं कर लेता तब तक अपने पैतृक निवास में रह सकता है लेकिन उनका रसोईघर अलग होता है। सबसे छोटा पुत्र अपने माँ-बाप की देखभाल के लिए उनके साथ ही रहता है। इस समाज में बहुपत्नी विवाह सामान्य है, यद्यपि शिक्षा के प्रसार के कारण इस प्रथा में कमी आयी है। लड़कियां घर और खेतों में काम करती हैं। इस जनजाति में विवाह के अनेक रूप प्रचलित हैं लेकिन ‘न्यीदा’ विवाह सबसे अधिक प्रचलित है। न्यीदा की व्यवस्था माता-पिता द्वारा की जाती है। लड़के के पिता इन विवाहों में सर्वप्रथम पहल करते है । पत्नियों की संख्या पुरुषों की आर्थिक दशा पर निर्भर करती है। इस समुदाय में प्रेम विवाह भी प्रचलित है। शादी गोत्र के बाहर परंतु जाति के भीतर होती है। बुआ की लड़की से शादी करना समाज स्वीकृत है। छोटे या बड़े भाई की विधवा से शादी करना भी जायज है। चावल, सब्जी, मांस, मछली, मकई इत्यादि इनके प्रमुख आहार हैं। ये लोग बाघ, बंदर, चूहा, मिथुन, बकरी, सूअर इत्यादि जानवरों के मांस खाते हैं। मदिरा अथवा अपोंग इनके दैनिक आहार का प्रमुख घटक होता है। सभी धार्मिक-सामाजिक उत्सवों और आयोजनों में अपोंग पीना-पिलाना अनिवार्य है। इस जनजाति का एक उल्लेखनीय पेय है केले से बनी मदिरा। इनके गाँव पहाड़ों की ढलान पर स्थित होते है। गाँव छोटे-छोटे होते हैं। एक गाँव में प्रायः दस-पंद्रह घर होते हैं। घर 60-60 फीट लंबे और फंद्रह-बीस फीट चौड़े होते हैं तथा जमीन से पाँच-सात फीट ऊपर चांग पर स्थित होते हैं। चांग के नीचे लकड़ी और बांस के खंभे लगे होते हैं। फूस और पत्तों के छप्पर होते हैं। घर से थोड़ी दूर पर धान्यागार होता है ताकि घर में आग लगने पर अनाज सुरक्षित रहे। चावल इनकी मुख्य फसल है। इसके अतिरिक्त मक्का, कोदो, कच्चू, शकरकंद, बैंगन, मिर्ची इत्यादि का भी उत्पादन किया जाता है। आजकल सेब, अन्ननास और केले का भी व्यावसायिक स्तर पर उत्पादन होने लगा है। खेती के लिए अन्य जनजातियों की भांति झूम विधि ही इस समुदाय में प्रचलित है। फरवरी-मार्च में धान बोने का कार्य आरंभ होता है। कृषि कार्य में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। खेतों में बीज बोने का कार्य तो मुख्य रूप से महिलाओं के लिए ही आरक्षित है। इस जाति के लोग मिथुन, सूअर, बकरी आदि जानवरों को भी पालते हैं। इन पशुओं को मांस के लिए पाला जाता है। मांस के अतिरिक्त मिथुन और सूअर का उपयोग वधू-मूल्य का भुगतान करने और आर्थिक दंड के रूप में जुर्माना देने के लिए भी होता है। मिथुन इनके लिए सबसे उपयोगी पशु है। वस्तु-विनिमय के लिए मिथुन का उपयोग सदियों से हो रहा है। यह हिल मिरी समाज की बहुमूल्य चल संपत्ति और समृद्धि की पहचान है। हिल मिरी समाज ‘सि-दोन्यी’ की सत्ता में आस्था रखता है। यह धरती (सि) और सूर्य (दोन्यी) का वाचक है। इनका विश्वास है कि माता सूर्य मानव की रक्षा करती हैं, रोगों से बचाती हैं तथा सुख-समृद्धि देती हैं। पृथ्वी के सभी प्राणी सूर्य द्वारा नियंत्रित और संचालित है। माता सूर्य जगत का आधार है। अन्य जातियों की तरह हिल मिरी के पास भी धरती, सूर्य, मनुष्य और अन्य प्राणियों की उत्पत्ति के संबंध में बहुत सारे मिथक उपलब्ध हैं। एक मिथक के अनुसार “बहुत पहले संसार की उत्पत्ति के पूर्व वियु चुंगम-इरूम अपनी पत्नी चिंगम-एरूम के साथ रहते थे। एक दिन जब उसकी पत्नी सोई हुई थी थोड़ा सा जल उसके शरीर पर गिर गया। जल गिरने से वह जग गयी और उन्हें अत्यंत ठंडक महसूस हुई। उसने अपने आस-पास नज़र दौड़ाई पर वहाँ कुछ भी नहीं था। उसने अपने पति से इस संबंध में कहा कि वह ठंड से आक्रांत है, ठंड उसके भीतर तक प्रवेश कर गयी है, लेकिन पति भी उस वस्तु का पता लगाने में असफल हुआ। बीस दिनों के बाद चिंगम-एरूम ने अंडा दिया। पति-पत्नी ने आश्चर्य के साथ उस अंडे को देखा और सावधानीपूर्वक रख दिया। छह महीने बाद अंडा फूट गया और उसमें से ‘सिचि’ (पृथ्वी), तोगल (बड़ा पर्वत) और तोगजी (छोटी पहाड़ी) बाहर आए।” हिल मिरी लोग अनेक प्रकार की दैवी शक्तियों और आत्मा में विश्वास करते रखते हैं। ‘यापोम’ को जंगलों का देवता माना जाता है। यह सबसे शक्तिशाली देवता है। वह कभी-कभी मनुष्य का रूप धारण कर जंगलों में घूमता है। जादू-टोना में भी इस समुदाय की प्रबल आस्था है। आस-पास के गांवों में महामारी फैलने पर हिल मिरी लोग आवागमन के मार्ग को बाधित कर देते हैं। इनका विश्वास है कि ऐसा करने से बीमारी फैलाने वाली दुष्ट शक्तियों का गांवों में प्रवेश नहीं हो पायेगा और लोग रोगग्रस्त नहीं होंगे। इस समाज का आत्मा के अस्तित्व में भी विश्वास है। इनकी मान्यता है कि मृत्यु के बाद आत्मा (यलो) को वियु ले जाता है और कुछ दिनों तक अपने साथ रखता है। इसके उपरांत ‘यलो’ मृतकों के संसार में प्रविष्ट होती है। मृतक जगत को स्थानीय भाषा में ‘रेली’ कहा जाता है। हितकारी और अहितकारी दोनों प्रकार की दैवी शक्तियों में इनकी आस्था है। हिल मिरी जन आबो तानी को अपना पूर्वज मानते हैं। इस समाज में आबो तानी के संबंध में असंख्य मिथक उपलब्ध हैं। एक मिथक के अनुसार “सुबनसिरी नदी के स्त्रोत के निकट आबो तानी का निवास था जिसे ‘सिपो-रिगो’ कहा जाता था। प्रत्येक वर्ष आबो तानी की पत्नी एक पुत्र को जन्म देती थी। इस प्रकार उसने सात वर्षों में सात पुत्रों को जन्म दिया। खाना के अभाव में उसके सातों बच्चे रोते-चिल्लाते रहते थे। इसलिए एक दिन जब उसके सभी बच्चे सोये हुए थे, आबो तानी और उसकी पत्नी उन्हें सोते हुए छोडकर सुबनसिरी घाटी का रास्ता पकड़ भाग गए। सभी बच्चे एक-एक कर जागते गए और अपने माता-पिता के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ते गए। सबसे बड़ा पुत्र इस नदी के मैदानी क्षेत्र में चला गया, दूसरा पुत्र पहाड़ी की तलहटी में जाकर रहने लगा। तीसरे ने पीअर नदी के पास एवं चौथे ने कमला घाटी को अपना निवास क्षेत्र बनाया। पांचवा पुत्र सिममि नदी के निकट और छठे पुत्र ने सिन्गेन के पास बस जाने का निश्चय किया। सातवाँ पुत्र अधिक दूर तक नहीं जा सका और वहीं उत्तर की ओर बस गया। यह सातवाँ पुत्र ही तागिन जनजाति का पूर्वज था।” हिल मिरी समाज में पुजारी का महत्वपूर्ण स्थान है। वह सभी प्रकार के धार्मिक त्योहारों का नेतृत्व करता है, सभी प्रकार के संस्कार संपन्न कराता है, बीमार लोगों को स्वस्थ करने के लिए उपचार करता है, यात्रा मुहूर्त बताता है, खेतों में बीज बोने का उचित समय निर्धारित करता है और गृह निर्माण के लिए सही समय नियत करता है। पुजारी अथवा न्यीब शिकार पर जाने के लिए उचित समय का परामर्श देता है। वह लोगों को सलाह देता है कि अच्छी फसल कैसे होगी और घरेलू पशु किस प्रकार निरोग रहेंगे। वह सभी प्रकार की पारंपरिक और जातीय विधि- निषेधों से भी परिचित होता है। किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर वह उसके संबंधियों को यह परामर्श देता है कि उसकी आत्मा की स्वर्ग यात्रा किस रीति से सुखकर होगी। ‘बूरी-बूत’ हिल मिरी समुदाय का प्रमुख पर्व है। यह फरवरी (लोके पोलो) माह में मनाया जाता है। यह पर्व सदियों से इस समुदाय द्वारा पारंपरिक रीति से मनाया जाता है। यह तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसका संबंध आदि पुरुष आबो तानी से है। इन लोगों का विश्वास है कि आबो तानी का जन्म पूर्णतः मानव रूप में हुआ था लेकिन वह अलौकिक शक्तियों से संपन्न मनुष्य थे। इस पर्व की तैयारी कुछ दिन पहले से ही आरंभ हो जाती है। समाज के सभी लोग इस त्योहार में योगदान करते हैं। पूजा स्थल का चुनाव पूजारी द्वारा किया जाता है। पर्व के प्रथम दिन पुजारी देवी-देवताओं का आवाहन करता है और पूजा को स्वीकार करने के लिए देवताओं से प्रार्थना करता है। देवी-देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त करने और सुख-शांति की कामना से चढ़ावा चढ़ाया जाता है। त्योहार के दूसरे दिन मिथुन की बलि दी जाती है। पुजारी के नेतृत्व में गाँव के स्त्री-पुरुष और बच्चे जुलूस के रूप में बलिवेदी तक जाते हैं और ‘बूरी-आबो’ की प्रार्थना करते हैं। लड़कियां अपने सिर पर चावल का आटा लिए रहती हैं। युवा दल नृत्य-गीतों के द्वारा अपने इष्ट देव को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है। मिथुन की बलि के समय आबालवृद्धवनिता एक-दूसरे पर चावल का आटा छींटते हैं। अगले दिन सामूहिक भोज होता है जिसमें गाँव के सभी लोग शामिल होते हैं। यह त्योहार हिल मिरी समाज को नई ऊर्जा और नवोत्साह से भर देता है।

*वीरेन्द्र परमार

जन्म स्थान:- ग्राम+पोस्ट-जयमल डुमरी, जिला:- मुजफ्फरपुर(बिहार) -843107, जन्मतिथि:-10 मार्च 1962, शिक्षा:- एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन, प्रकाशित पुस्तकें :1.अरुणाचल का लोकजीवन 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य 3.हिंदी सेवी संस्था कोश 4.राजभाषा विमर्श 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय 6.हिंदी : राजभाषा, जनभाषा,विश्वभाषा 7.पूर्वोत्तर भारत : अतुल्य भारत 8.असम : लोकजीवन और संस्कृति 9.मेघालय : लोकजीवन और संस्कृति 10.त्रिपुरा : लोकजीवन और संस्कृति 11.नागालैंड : लोकजीवन और संस्कृति 12.पूर्वोत्तर भारत की नागा और कुकी–चीन जनजातियाँ 13.उत्तर–पूर्वी भारत के आदिवासी 14.पूर्वोत्तर भारत के पर्व–त्योहार 15.पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक आयाम 16.यतो अधर्मः ततो जयः (व्यंग्य संग्रह) 17.मणिपुर : भारत का मणिमुकुट 18.उत्तर-पूर्वी भारत का लोक साहित्य 19.अरुणाचल प्रदेश : लोकजीवन और संस्कृति 20.असम : आदिवासी और लोक साहित्य 21.मिजोरम : आदिवासी और लोक साहित्य 22.पूर्वोत्तर भारत : धर्म और संस्कृति 23.पूर्वोत्तर भारत कोश (तीन खंड) 24.आदिवासी संस्कृति 25.समय होत बलवान (डायरी) 26.समय समर्थ गुरु (डायरी) 27.सिक्किम : लोकजीवन और संस्कृति 28.फूलों का देश नीदरलैंड (यात्रा संस्मरण) I मोबाइल-9868200085, ईमेल:- [email protected]