गीत/नवगीत

चूल्हा उदास है

गया ज़माना सुनो उस चूल्हे – चक्की का अभी
तभी तो सुनो अभी ही , चूल्हा यही उदास है

वो भी कैसे दिन थे , चूल्हा जब – जब जलता था
खाने का वही समय तो कभी नहीं टलता था
स्वादिष्ट खाने के मिले सबको वही आस है
तभी तो सुनो अभी ही , चूल्हा यही उदास है

माँ के हाथ की पकती रोटी गरम खाते थी
मैं भी हृदय से चूल्हे पर खाना बनाती थी
गैस पर बने अब खाना , लकड़ी है न घास है
तभी तो सुनो अभी तो , चूल्हा यह उदास है

सब मिलजुल बैठते खाना मज़े से खाते थे
चूल्हे के पके – सा स्वाद हम कहीं न पाते थे
गाँव के सिवा दिखे कहीं न चूल्हा जो ख़ास है
तभी तो सुनो अभी तो , चूल्हा यही उदास है

गया ज़माना सुनो उस चूल्हे – चक्की का अभी
तभी तो सुनो अभी तो , चूल्हा यही उदास है

— रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘