सोने का ही क्यो न हो
आखिर पिंजरा तो पिंजरा हैं
ए मानव क्यूँ कैद मुझे कर
तू इतना इतराता हैं।
नही चाहिए शाही भोज न
मुझे कोई दाना-पानी
बस मुझको दे दो ए मनुष्य
तुम वापस मेरी आज़ादी।
खुले अम्बर में मेरे पंखों
को आज़ादी से उड़ना हैं।
पंख फैलाकर अपने हर
पंछी साथी से मिलना।
हाय !तेरा शौंक मुझ बेजुबान
की तो गुलामी हैं।
कभी कैद जब तू होता हैं
पूरा कुनबा तेरा रोता हैं
धन बल सब दांव पर रख
तुझको आज़ाद कराते हैं।
सोच मेरे परिवार पर भी क्या
मुझ बिन बीत रही होगी?
तुझे मुबारक तेरा पिंजरा
प्यारी मुझको आज़ादी हैं।।
— सविता वर्मा “ग़ज़ल”