ग़ज़ल
गाँव में वैसी सुहानी, अब कहीं होली नहीं।
बोल से मन को रिझाले,नेह की बोली नहीं।
सूखी पड़ीं पिचकारियाँ रँग रसायन से बना,
ढोल- ढप से गूँजतीं, वे नाचती टोली नहीं।
खेलते थे पंक से तब,जन बुरा क्यों मानता,
अब गुलालों से भरी वह फागुनी टोली नहीं।
खोया मैदा से बना,गुझिया नहीं वैसी मिले,
रंग से जो खिलखिलाए अब कहीं चोली नहीं
नाचते थे छानकर वे,लोग अब मिलते नहीं,
ज़िन्दगी के ग़म भुला दे,भाँग की गोली नहीं।
रात भर वो खेलना वो, चाँदनी रातें कहाँ,
साथ आजीवन निभाते,आज हमजोली नहीं।
‘शुभं’ मदनोत्सव मनानाऔपचारिक हो गया,
सालियों को मत रिझानाअब रहीं भोली नहीं
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’