कविता

कोरोना का संदेश

धरती के प्रबुद्ध प्राणियों
माना कि तुम सब
संसार के सबसे
जहीन प्राणी हो।
मगर ऐसा तुम सोचते हो,
मेरी नजर में तो तुम
बुद्धिहीन ही नहीं
सबसे बड़े बुद्धिहीन हो।
क्योंकि तुम
स्वार्थी हो,निपट कलंकी हो,
खुद को इंसान कहते हो,
पर इंसान कहलाने के
लायक नहीं हो।
गलतियां करके भी
औरों को दोष देना
तुम्हारी फितरत है,
तुम्हें तो अपने आप से भी
नफरत है।
तुमने तो भगवान को भी
हमेशा दोषी ठहराया,
अपने कर्मों में कभी
खोट न नजर आया,
जबसे मैं आया
तुम्हारे तो भाग्य खुल गए भाया।
मैं कोई रोग नहीं
दहशत भर हूँ,
बहुत कुछ देखने सुनने
तुम्हें समझाने भी आया हूँ
तुम्हारी औकात बताने आया हूँ।
क्या तुमने इंसानी धर्म निभाया?
अपने माँ बाप,परिवार, समाज को
तुमने क्या क्या नहीं दिखाया?
लूट, हत्या, अनाचार, अत्याचार
षडयंत्र, भ्रष्टाचार का
नंगा नाच दिखाया।
प्रकृति से खिलवाड़ किया
हरियाली लीलते जा रहे
कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे
मानवता ,भाईचारा, सहयोग,
सभ्यता से कोसों दूर जा रहे,
इंसान होकर भी इंसानों सा नहीं
जानवरों से भी गये गुजरे हो रहे।
अब जब से मैं आया
तुम्हें बड़ा दुश्मन लगता हूँ,
पर सोचा कभी तुमनें
मैं ऐसा क्यों दिखता हूँ?
मैं बहुत मजबूर हो गया
मगर तुम्हारी ही बेवकूफियों से
बहुत मशहूर हो गया।
क्योंकि तुम्हें तो
अपनी भी फिक्र नहीं है,
बिना हाँड़ माँस का मैं
आज दहशत बन गया हूँ।
पर सोचो तुमनें क्या किया?
मुझे तुम सबने बड़े हल्के में लिया।
न सुरक्षा न सावधानी
लापरवाही भरी सबकी राम कहानी,
अब रो क्यों रहे हो?
तुमनें कब किसे बख्शा है?
जल, जंगल, जमीन का
भरपूर दोहन किया है,
प्रकृति की खूबसूरती का
भरपूर चीरहरण किया है।
किसी को भी तुमनें बख्शा नहीं
बाढ़, सूखा, ,भूकंप,भूस्खलन
धरती ही नहीं बादलों का भी
फटना तुम्हें खटका ही नहीं,
प्रकृति के हर एक दर्द का
हिसाब लेने आया हूँ।
पर तुम सब बड़े बेशर्म हो
मर रहे हो मगर
अकड़कर अब भी तने हो,
अब भी समय है सँभल जाओ।
मैं कहीं जाने वाला नहीं हूँ
तुम्हारे आँसुओं का यकीन करुँ
ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ,
तुम्हारे बहकावे में आने का
शौकीन भी नहीं हूँ।
अब तो यहीं मैं भी
अपना स्थाई घर बनाउंगा,
जब तक तुम समझोगे नहीं
इसी तरह रह रहकर समझाऊँगा।
मुझसे डरना छोड़ो
इंसान हो इंसान बनकर रहो,
प्रकृति से दुर्व्यवहार न करो
धरती माँ को खोखला नंगा न करो
नदियां नाले झरने जल स्रोतों को
अवरुद्ध न करो,खत्म न करो
धरा पर हरियाली का
फिर से आवाहन,स्थापन करो,
आखिर तुम भी तो
इसी धरती, आकाश ,प्रकृति का
हिस्सा हो ये समझ जाओ,
मैं भी तुम्हारा दोस्त हूँ
इतना समझ जाओ,
अपना जीवन सरल,संयमित
निर्मल बनाओ।
मगर खुद से तुमको प्यार है
मुझे भी अहसास कराओ।
मेरा डर मन से निकाल दो
कोरोना को बदनाम न करो,
मैंनें तो सिर्फ़ आइना दिखाया है
डर डर के तुम मर रहे
तो आखिर मैं क्या करुँ?
बस आखिरी बार कह रहा हूँ
अपनी जीवनशैली बदल डालो,
हँसकर, रोकर जैसे भी हो
मेरे संग संग जीने की
आदत बना डालो,
मुझे मिटाने का सपना छोड़ दो
जीने के लिए मुझसे
दोस्ती कर डालो।
फिर मिलकर एकता की
पुराना चर्चित गीत
मिलकर गाते हैं,
मिले सुर मेरा तुम्हारा
कि सुर बने हमारा।

*सुधीर श्रीवास्तव

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