यात्रा संस्मरण
कोरोना ने मार्च २०२० से ही जीवन की रफ़्तार पर ब्रेक लगा दी थी। सही शब्दों में कहा जाए तो आदमी के कदमों में अवरोध लगा और उसे घरों में कैद करके, कोरोना वायरस खुद बखूबी टहल रहा था। ऐसे में जब ऑफिस की तरफ से १६ – २१ दिसंबर २०२० में राजस्थान घूमने का प्रस्ताव आया, तो पहले पहल थोड़ा हिचकिचाई, पर साथ ही साथ घूमने की कल्पना और एडवेंचर ने चिंतन से ही मन कोरोना का डर भूल गया। वैसे भी मैंने पहाड़ों और समुद्रीय इलाकों का भ्रमण तो कईं बार किया था, मगर रेत के धोरों को न देख पाने का मलाल हमेशा ही रहा था। दूसरे, जीवन की आपाधापी से निकल कर, खुद के साथ समय बिताने का, इससे सुनहरी मौका शायद ही मिल पता।
अब जब यात्रा वृतांत लिखने बैठी हूँ, सच कहूं तो यह बहुत कठिन काम लग रहा है। वो खूबसूरत पल अभी भी आँखों में जीवंत हैं और अनायास ही लबों पर मुस्कुराहट ला रहे हैं, पर उन्हें पन्नों पर उतारने में शब्द धोखा दे रहे हैं । खैर, तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार, इस टूर में जैसलमेर और जोधपुर देखना तय था, पर जब सफर शुरू हुआ तभी समझ आ गया था कि पूरे प्रोग्राम में परिस्थियों के मुताबिक झोलमाल और बदलाव की पूरी-पूरी सम्भावना रहेगी और बाद में मेरा यह अंदेशा सही साबित भी हुआ ।
१६ दिसंबर की सुबह सात बजे, तैयार होकर जब व्हाट्सप्प मैसेज चैक कर रही थी कि “जैसेलमेर ट्रिप” वाले ग्रुप में आए एक मैसेज पर नज़र अटक गई “दिल पर पत्थर रख कर आज कर ली मैंने बेवफाई, खुमार था टूर का, उत्तेजित हो कर २:३० पर दूर फेंक कर दी रजाई ” इस मैसेज को देखते ही लबों पर हंसी आ गयी और समझ गयी कि यह टूर टैलेंट-हंट वाला ट्रिप भी बनने वाला था।
तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार जब मैं ७:१० बजे निर्धारित स्थान पर पहुंची तो पाया कि कुछ लोग ६:३० बजे ही आ गए थे। सबका इंतज़ार करते हुए और ठण्ड में चाय की चुस्कियां लगते हुए, हम सुबह ८ बजे बस में बैठ हिसार से जैसलमेर के लिए रवाना हुए । क्योंकि पूरी बस में ऑफिस के लोग ही थे, बस के चलते ही बस में नाचना गाना शुरू हो गया। रास्ते में जगह – जगह रुकते, अपने हिसाब से खाना बनवाते (आखिर ३२ लोगों का पूरा कुनबा था), मस्ती से सेल्फी लेते,,,,, शुरुआत में ही पता चल गया था कि तयशुदा समय के हिसाब से हम काफी पीछे चल रहे हैं। प्रोग्राम के मुताबिक होटल में रात 8 बजे पहुंचना था। पर, शाम होते-होते अँधेरे और धुंध की वजह से बस की रफ़्तार भी धीमी होती गयी। खैर, राम – राम करते १६ दिसंबर की रात एक बजे के बाद हम स्वर्णनगरी जैसलमेर पहुंचे। बस से उतरने से पहले ही सबको सूचित कर दिया गया कि चूँकि हम लोग काफी लेट हैं इसलिए पहले खाना खाएंगे और उसके बाद सोने के बारे में सोचेंगे। पर यह क्या ??? दिमाग में होटल की छवि लिए, हममें से अधिकतर लोगों को तो पता ही नहीं था कि हम “रियल एडवेंचर” के लिए आए हैं और दिसंबर कि ठण्ड में हम लक्ज़री टैंट हाउस में रुकने वाले हैं। हवा ठंडी के झोंकों के साथ दांतों का किटकिटाना स्पष्ट संकेत दे रहा था कि इस समय यहां का तापमान एक डिग्री के आसपास ही होगा। जो भी हो, अपनी-अपनी जेबों से मोबाइल फ़ोन निकल कर उस समय का वास्तविक तापमान देखने की ज़हमत किसी ने भी नहीं उठाई।
तत्पश्चात, अपना अपना सामान बस से निकलवाकर हम लोग खाना खाने के लिए पहुंचे । यहां पहुंचते ही पारम्परिक व्यंजन दाल-बाटी चूरमा, गट्टे की सब्जी इत्यादि की खुशबु मात्र ने ही भूख को बढ़ा दिया था। खाना खाने के बाद, अपने सामान सहित हम सबने अपने-अपने टैंट की तरफ प्रस्थान किया। एक टेंट में तीन लोगों के रुकने की व्यवस्था थी। पूरे दिन की थकान और ठण्ड की वजह से, बेड में घुसते ही नींद आ गयी। पर टेंट के किसी कोने से आती ठंडी हवा, पूरी रात परेशान भी करती रही।
१७ की सुबह थकन की वजह से नींद ज़रा देर से खुली। चाय का कप लेकर हम पांच छह लोग कैफेटेरिया की छत पर चले गए । वाकई स्वर्णनगरी लगा जैसलमेर। सुबह की धूप रेत पर सुनहरी आभा बिखेर रही थी। जहाँ तक नजर गई.. चारों तरफ रेत ही रेत । इन सुनहरे पलों को हम सबने मोबाइल में समेट लिया। तभी व्हाट्सप्प ग्रुप में मैसेज भी आ गया कि सभी तैयार होकर नाश्ता कर लें, १० बजे डेजर्ट सफारी के लिए निकल पड़ेंगे। जैसलमेर आने से पहले सुना तो था कि अगर आप जैसलमेर जाते है और सम के रेतीले धोरो पर कैमल सफारी नहीं करते तो आपकी यात्रा अधूरी है, पर इसमें कितनी सच्चाई है, उस दिन पता चला।
सबका इंतज़ार करते करते, लगभग १२ बजे, हम डेजर्ट सफारी के लिए निकल पड़े। वहां जाकर तो नजरें फटी की फटी रह गयीं। दूर तक सिर्फ रेत के टीले ही टीले थे । चारों तरफ अखंड रेतीले मैदान का स्तब्ध कर देने वाला दृश्य बहुत ही मनभावक था। सब बच्चों की तरह रेत को हवा में उछालने लगे। साथ ही साथ अलग अलग पोज़ बना कर एक दूसरे से फोटो खिचवाने का प्रोग्राम भी शुरू हो गया । नंगे पांव रेत में भागने का अलग ही अनुभव मिला। थोड़ी ही देर में परम्परिक नाच गाने वालों की टोलियों ने भी हम लोगों को घेरना शुरूं कर दिया। उनके साथ नाचते गाते कब आधा दिन बीत गया, पता ही नहीं चला। इसके बाद हम सबने कैमल और जीप सफारी का आनंद लिया । पहले – पहल ऊँट पर बैठने पर डर लग रहा था, पर जब एक बार बैठ गए, तब रेत के लहरदार टीलों से होते हुए मंथर गति से ऊँट की सैर का अनुभव आनंददायक था। इसी तरह, जीप सवारी भी अपने आप में अलग ही रोमांच लिए थी। रेत के टीलों से एकदम ऊपर चढ़ती और एकदम से नीचे उतरती जीप की सवारी से काफी झटके लगे। हाथ में तो चोट लगी ही, पर साथ ही साथ पीठ का दर्द भी बढ़ गया। वैसे भी अब तक, पूरे दिन की उछलकूद से सभी थक चुके थे और अब इंतज़ार था “सूर्यास्त” का। एक ऊंचा सा टीला देखकर हम लोग उस पर बैठ गए और सूर्य के अस्त होने के इंतज़ार में रेत में खेलते रहे। कुछ देर बाद आखिर वो घड़ी आ ही गई जिसका हमारी तरह कई पर्यटक इन्तजार कर रहे थे । धीमे धीमे सूर्य का रेत के टीलों के पीछे छुप जाना, बहुत ही मनमोहक दृश्य था। हम सभी ने डूबते हुए सूर्य का दृश्य अपने कैमरे में कैद किया और बहुतों ने सूरज को अपने हाथों में पकड़ लेने का फोटो सेशन भी करवाया। सूर्यास्त होने के बाद भी काफी देर तक सूर्य की लालिमा आसमान में रही।
पर,चूँकि अँधेरा बढ़ने के साथ-साथ ठण्ड भी बढ़ने लगी थी, न चाहते हुए भी हम सबको वापिस आना पड़ा। रात को क्ल्चरल नाईट का प्रोग्राम था। रिसोर्ट पहुंचते ही देखा कि मैदान के चारों तरफ लगी कुर्सियों लगीं थी और चाय नाश्ता परोसा जा रहा था। कल्चरल प्रोग्राम शुरूं हो चुका था और दो लड़कियां कालबेलिया नृत्य कर रहीं थीं। कलाकार शानदार आवाज के साथ गीत गा रहे थे और थिरक रहे थे। प्रोग्राम के अंत में उन्होंने हम सबको भी अपने साथ नाचने को आमंत्रित किया। जिसे हम सबने सहर्ष स्वीकार कर लिया। शायद हम लोग इसी आमंत्रण का इंतज़ार कर रहे थे। उन लोगों के जाने के बाद भी, देर रात तक हम थिरकते रहे। इस तरह पहला दिन बेहतरीन तरीके से बीता।
१८ तरीक को पैराग्लाइडिंग करने, जैसलमेर सिटी और आसपास की जगहों जैसे गड़ीसर लेक, पटवों की हवेली इत्यादि घूमने का प्रोग्राम था। सुबह नाश्ता करके, सभी ११ बजे तक तैयार हो गए थे। आज भी हम निर्धारित समय से २ घंटे पीछे चल रहे थे। पर इतने बड़े ग्रुप में ऐसा तो होता ही है। सबसे पहले हम पैराग्लाइडिंग करने के लिए गए। रास्ते में बड़ी बड़ी पवनचक्कियों को देखना एक अलग ही अनुभव था। हमारे साथ गयीं कुछ लड़कियां पैराग्लाइडिंग करने से डर रहीं थीं, पर फिर काफी समझाने के बाद, उन्होंने ने भी पैराग्लाइडिंग के लिए हामी भर दी। यकीनन, पैराग्लाइडिंग का अनुभव काफी शानदार और रोमांच से भरा था। हर व्यक्ति के पैराग्लाइडिंग करते हुए वीडियो भी बनाया गया ताकि सभी लोग अपनी प्यारी यादें सहेज कर रख पाएं। इसके पश्चात् हमारी बस रहस्मयी और खंडहर में परिवर्तित कुलधरा गांव की तरफ चल पड़ी।
खंडहर हुए कुलधरा गांव के बारे में बहुत सी कथाएं प्रचलित हैं। यह गाँव मूल रूप से पाली से जैसलमेर विस्थापित ब्राह्मणों द्वारा बसाया गया था। कोई कहता है कि कुलधरा की भूमि पर सैकड़ों वर्षों से भटकती आत्माओं का पहरा है तो कोई यह मानता है एक श्राप ने इस स्थान की तकदीर बदल दी। कुछ लोगों का मानना है कि यहां के लोग पानी की समस्या के कारण लोग गाँव छोड़कर कहीं और गए, जबकि कुछ लोगों का कहना हैं कि जैसलमेर राज्य के मंत्री सलीम सिंह के अत्याचार के कारण इस गाँव के लोगों ने यहाँ से पलायन कर लिया था। भूतिया गांव के नाम से जाने जाने वाले इस गाँव में पहले लोगों को घूमने जाने के लिए अनुमति नहीं थी। लेकिन अब इसे पर्यटन स्थल का दर्जा दिया गया है। देश विदेश से लोग इधर घूमने आते हैं। खैर, जब हम उधर पहुंचे, कोरोना पीरियड होने के बावजूद काफी भीड़ थी। अपनी ही मस्ती में बस से उछलते – कूदते हम सब जब थोड़ा आगे पहुंचे ही थे कि हमें बताया गया कि बिना मास्क के आगे जाना मना है। थकेहारे, हम सब फिर से बस की तरफ चल पड़े जिधर सब अपना-अपना मास्क छोड़ कर आए थे। खंडहर में परिवर्तित कुलधरा के मकानों के अवशेषों से यह स्पष्ट अंकित हो रहा था कि कुलधरा के मकानों को वैज्ञानिक आधार से बनाया गया था। अवशेषों में आज भी राजस्थानी संस्कृति की झलक मिलती है । खैर, शाम होने को थी। मैं उधर एक कमरे का दरवाजा खोलने ही लगी थी कि वहां खड़े किसी व्यक्ति ने बताया कि इस कमरे में साँपों का बसेरा है। कमरे में अँधेरा होने की वजह से मैंने भी कोई ज्यादा हिम्मत न दिखलाई। कुछ समय वहां बिताने और फोटो खिंचवाने के बाद हम सभी वापसी के लिए अपनी बस में आ बैठे और हमारी बस जैसलमेर की किले की तरफ बढ़ चली।
किले को देखने के लिए हमने टूरिस्ट गाइड की मदद ले ली थी। उसने बताया कि जैसलमेर के किले के अंदर एक संग्रहालय और विरासत केंद्र बना दिया गया है जो जैसलमेर की पुराने दौर की समृद्ध विरासत से रूबरू करवाता है। पीले पत्थरों से बने इस किले पर जब सूरज की रौशनी पड़ती है तो ये बिल्कुल सोने की तरह चमकता है, इसलिए इसे सोनार किले के नाम से भी जाना जाता है। इतनी विशेषताएँ देख कर किले को देखने की इच्छा और भी बलबती हो गयी। किला दिखाते हुए गाइड ने यह बताया की अपनी बनावट और खूबसूरती की वजह से ये किला यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट की सूची में शामिल है। यह राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा किला है। जैसलमेर का दुर्ग रिहायशी है। आज भी इस दुर्ग के अन्दर कई कालोनियां बनी हुई है, जहाँ लोग स्थाई रूप से निवास करते है ! कई बार तो ऐसा प्रतीत हुआ कि हम किसी पुराने शहर की गलियों में घूम रहे हैं जहाँ सभी लोग तंग गलियो में में बड़ी बड़ी हवेलियों में रहते हैं । बहुत सारा समय उधर बिताने और फोटो खिंचवाते खिंचवाते साँझ ढलने को आ गयी थी। इसलिए देर हो जाने की वजह से जैन मंदिर जाने का प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ा। गड़ीसर झील पास में ही थी इसलिए उधर जाने का प्रोग्राम बन गया। पर हममें से कईं लोग खरीदारी करने के पक्ष में थे इसलिए तर्क-वितर्क की स्थिति आ गयी थी। बस में बैठे बैठे ही यह पता चला कि लोकल मार्किट भी पास में ही है । तो यह तय हुआ कि जिसने खरीदारी करनी है, खरीदारी कर ले बाकी लोग बोटिंग कर लेंगे। पर हाय री किस्मत ! अँधेरा होने कि वजह से न तो बोटिंग हो पाई और मार्किट भी लगभग बंद हो चुकी थी, इसलिए शॉपिंग भी न हो पाई। गाइड द्वारा सुझाई गए शो रूम में गए तो पर उधर चीजों के दाम बहुत ही ज्यादा थे, उधर से खरीदारी किसी भी तरह से अक्लमंदी का सौदा न लगी। बुझे मन से हम सभी वापिस लौट पड़े। पर तब तक मेरे मन में बैठा बच्चा जग चुका था। विपरीत परिस्थितियों में खुद का ही मजाक कैसे उड़ाया जाए, यह मैं बखूबी जानती हूँ। वापसी का रास्ता फिर हँसते गाते गुजरा। पर यह क्या ! बस से उतरते हुए हमेशा की तरह अगले दिन की ब्रीफिंग दी गई कि क्यों न जोधपुर की जगह माउंट आबू जाया जाए ? सुझाव तो अच्छा था, पर पूरा दिन ख़राब हो जाता, इसलिए हममें से अधिकतर इसी पक्ष में थे कि रात को ही सफर पर निकल लिया जाए। और ,,,, अंततः यही तय हुआ कि दो घंटे में खाना खा कर हम सभी अपना सामान पैक करके रात के १ बजे माउंट आबू निकल पड़ेंगे।
और १९ तारीक की ठंडी रात में कंपकपाते हुए हम सब अपनी-अपनी सीटों में बैठ, माउंट आबू देखने के लिए तैयार थे। अभी तक के मस्त सफर में एक हादसा इस सफर के लिए थोड़ा कष्टदायी रहा। हुआ यह कि सोते हुए ऊपर रखा स्पीकर, हमारे स्टाफ मेंबर के १० – १२ वर्षीय बेटे के सिर पर गिर गया , जिससे उसके सिर से खून निकलने लगा । यकायक बच्चे के रोने की आवाज़ सुन कर हम सब नींद से उठ गए। जल्दी से फर्स्ट ऐड बॉक्स निकाला गया। जब तक खून रुक नहीं गया, सभी घबराए से रहे। अनजानी जगह और रात का वक्त होने की वजह से डाक्टर का भी नहीं पता था। लगभग आधा पौने के घंटे की मुशक़्क़त के बाद उसके सिर से खून निकलना बंद हुआ। बच्चे के सो जाने के बाद ही सब सो पाए। सुबह १० बजे के करीब हम लोग एक जगह नाश्ता करने के लिए रुके। डाक्टर का क्लीनिक भी पास ही था। हम सबको डर था कि शायद टांके लगेंगे, पर डाक्टर ने बताया कि घबराने की कोई बात नहीं हैं और पट्टी बांध दी। तकरीबन २ घंटे के विश्राम के बाद फिर से बस माउंट आबू की तरफ चल पड़ी। सोचा था कि शायद १२ बजे के करीब माउंट आबू पहुंच जायेंगे, पर होटल तक पहुंचते पहुंचते ३ बज गए।
नेट पर सर्च करके अभी तक पता चल चुका था कि माउन्ट आबू राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन है जो अपने शांत वातावरण और हरे-भरे माहोल की वजह से काफी लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और यहाँ का “सनसेट पॉइंट” बहुत खूबसूरत है। चूँकि होटल पहले से ही बुक करवाया जा चुका था, अपने -अपने कमरे की चाबी लेकर हम लोग कमरों में पहुंचे तो पाया कि रूम अरेंजमेंट सही नहीं है। और तो और जितने कमरे हमने बुक करवाए थे, उतने कमरे उनके पास थे ही नहीं । जल्दबाजी में साथ वाले होटलों में रूम ढूंढे गए और फाइनली जब हम लोग नहा धो कर तैयार हुए , चार बज चुके थे। पेट में भी चूहे कूद रहे थे। सो जल्दी से तैयार हो कर हम लोगों ने पेट पूजा की और उसके बाद सुन सनसेट पॉइंट की तरफ चल पड़े। जब हम वहां पहुंचे, तो खासी भीड़ हो चुकी थी और सूर्य भी अस्त होता सा प्रतीत हो रहा था। फिर क्या था, हम सबने एक अच्छी खासी दौड़ लगाई , जो दौड़ नहीं सकते थे उन्होंने हाथ से खींचे जाने वाली गाड़ी की सवारी करके जल्दी पहुंचने की अक्लमंदी दिखाई और अंततः सूर्यास्त से पहले हम सनसेट पॉइंट पहुँच ही गए। सच में सूर्यास्त के समय बीहड़ अरावली पर्वतमाला पर सूर्य की किरणों का दृश्य बेहद आकर्षित करने वाला था। डूबते सूर्य की लाल और नारंगी रंग की किरणें बहुत खूबसूरत दिखाई दे रहीं थीं । इस मनलुभावन नजारों को अपने अपने कैमरों में कैद करके, जब हम पहाड़ियों से उतरे, तो अँधेरा हो चला था। अभी तक शॉपिंग न कर पाने का हम सबको बहुत मलाल था। रास्ते में दुकानों पर खूबसूरत सामान दिख रहा था, पर समय के अभाव के कारण ज्यादातर लोग शांत ही रहे और जिन्होंने मनमर्जी की, वो गुस्से का शिकार भी बने। उनके देरी से आने की वजह से न केवल सबको उनकी चिंता हुई बल्कि काफी देर तक उनका इंतज़ार भी करना पड़ा। खैर, थोड़ी गर्मागर्मी के बाद बस होटल की तरफ रवाना हो गयी। बस में वापिस बैठे, हमेशा की तरह अगले दिन की ब्रीफिंग दी गयी। अगले दिन मंदिर देखने का प्रोग्राम बना और सबसे आठ बजे तक तैयार होने को बोला गया। देर रात व्हाट्सप्प ग्रुप में एक और मैसेज आया कि सुबह १० बजे चलने का प्रोग्राम है। १० बजे देखते ही हम चैन से नींद के आगोश में खो गए।
ग्रुप के आधे लोगों ने मैसेज नहीं पढ़ा था। वो सुबह-सुबह आठ बजे ही तैयार हो गए थे। खैर, तयशुदा समय के अनुसार हम सब तैयार हो सेल्फी लेने में व्यस्त हो गए। हमें पहले ही बता दिया गया था कि आज हम जीपों में बैठ कर मंदिरों के दर्शन करेंगे। थोड़ी देर बाद हम अचलेश्वर महादेव मंदिर पहुंचे। यह मंदिर शिव भगवान के दूसरे मंदिरों से अलग है क्योंकि यहां शिव लिंग की जगह भगवान शिव के अंगूठे की पूजा होती है। पारम्परिक मान्यता है कि इसी अंगूठे ने पूरे माउण्ट आबू के पहाड़ को थाम रखा है। इस प्राचीन मंदिर में अलग सी चित को शांत करने वाली शांति थी। मंदिर के परिसर में कुछ अलग तरह के पौधे लगे थे। एक पौधा अलग ही लगा। पंडित जी की आज्ञा लेकर मैंने एक पौधे की कलम में तोड़ ली। उम्मीद तो कम थी कि वो टहनी सही सलामत हिसार तक पहुंचेगी, पर आज भी वो टहनी मेरे गमले की शोभा बढ़ा रही है। मंदिर के बाहर कुछ दुकानें थीं जिनमें उचित दाम पर सुंदर सुंदर कृतियां मिल रहीं थी। हम सबने यादगार के तौर पर उधर से कुछ न कुछ जरूर खरीदा।
इसके पश्चात् हम सब जीपों में बैठ कर गुरु शिखर की तरफ चल पड़े। गुरु शिखर काफी ऊंचाई पर है। क्योंकि हममें से अधिकतर को चलने की आदत नहीं थी, सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते थकान के मारे बुरा हाल हो गया था। रास्ते में दोनों तरफ खाने पीने की बहुत सी दुकानें थीं, इसलिए थकान होते हुए भी ज्यादा थकान महसूस न हुई । ऊंचाई पर ठंडी मदमस्त करने वाली हवा चल रही थी। पास ही पीतल की बड़ी घंटी थी, जिसके साथ खड़े होकर हम सबने खूब फोटो खिंचवाईं। गुरु शिखर से नीचे का दृश्य बहुत ही सुंदर दिखाई दे रहा था । लगभग एक घंटा उधर बिताने के बाद भी कोई वापसी के लिए तैयार न थे। पर समय कम था। कुछ लोग दत्तात्रय मंदिर के दर्शन आते हुए कर आए थे और कुछ लोग मंदिर दर्शन के लिए उत्सुक न थे। चूँकि मैं खुद भी सीधे शिखर पर आ गयी थी, दत्तात्रय मंदिर के दर्शन अभी बाक़ी थे। जल्दी से, मैं अकेले ही मंदिर दर्शन के लिए चल पड़ी। पर्वत पर बने इस मंदिर की शांति दिल को छू लेने वाली थी । यह सफेद रंग का मंदिर भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय को समर्पित है। क्योंकि आगे भी बहुत जगह जाने का प्रोग्राम था, जल्दी से मंदिर में दर्शन करके मैं वापिस आ गयी। पर नीचे आने पर पता चला कि आधे लोग अभी भी गुरु शिखर के मधुर और रमणीय नजारों में खोए, सेल्फी लेने में व्यस्त हैं। आधे पौने घंटे के इंतज़ार के बाद आखिरकार वे लोग भी नीचे आ ही गए। रास्ते में सेल्फी पॉइंट्स बने हुए थे। इधर, एक बार फिर से रुक कर, हम लोग फोटो सेशन करवाने और प्राकृतिक नज़ारों को अपने फ़ोन में कैद करने को तैयार थे। हमेशा की तरह यहाँ भी अपने बच्चों को वीडियो कॉल करके मैंने पहाड़ियों के दर्शन करवाए।
इसके बाद, फिर से जीपों में सवार हो हम लोग विश्व प्रसिद्ध दिलवाड़ा जैन मंदिर के दर्शन को चल पड़े। थकान के मारे आधे लोगों ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि वे जीपों में ही बैठे रहेंगे। तकरीबन १६ – १७ लोग ही मंदिर दर्शन कर लिए गए। निःसंदेह यह मंदिर वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। संपूर्ण मंदिर एक प्रांगण के अंदर घिरा हुआ है। संगमरमर पत्थर पर की हुई बारीक नक़्क़ाशी, फूल-पत्तियों व अन्य डिजाइनों से अलंकृत नक़्क़ाशीदार छतें, पशु-पक्षियों की शानदार आकृतियां, जालीदार नक़्क़ाशी से सजे तोरण इत्यादि – इस विश्व विख्यात मंदिर में शिल्प-सौंदर्य का बेजोड़ ख़ज़ाना लगीं। इस अद्भुद और अविश्वसनीय नक्काशी देख कर सबके सब दंग रह गए। मुझे पेड़ – पौधों से कुछ विशेष ही लगाव है। मंदिर के परिसर में और बाहर लगे हुए फूल और पौधे देख कर मन प्रफुल्लित हो उठा । काश ! मैं कुछ पौधे अपने साथ हिसार ला पाती। सन २०१९ में जब मैं हिमाचल गयी थी, उधर से भी बहुत सारे पौधे लाई थी, पर हरियाणा की गर्म हवाओं में कुछ दिनों बाद ही वो शहीद हो गए थे। बस उसी को याद करके पौधे लेने का आइडिया छोड़ना पड़ा। परिसर के बाहर खरीदारी के लिए उचित दाम की बहुत सारी दुकानें थीं जिधर हम सबने खूब खरीदारी की।
शाम को नक्की झील देखने और बोटिंग करने का प्रोग्राम बना था । नक्की झील माउंट आबू के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। पेट-पूजा करके जब हम नक्की झील की तरफ जाने लगे तो आसपास की दुकानें अनायास ही हमें खरीदारी करने का निमंत्रण देती हुई प्रतीत हुईं। चूँकि नक्की झील में पर्यटकों के लिए नौका विहार का भी प्रबंध है, अधिकतर लोग नौका विहार के लिए चले गए और हम तकरीबन १० -१२ लोग शॉपिंग का लुफ्त उठाने के लिए पास की लोकल मार्किट में आ गए। खरीदारी करते हुए समय किधर गया, पता ही नहीं चला। खैर, डिनर करने के बाद चलते चलते एक और धमाका किया गया। दरअसल हिसार में जो प्रोग्राम जैसलमेर और जोधपुर जाने का बना था, बाद में वो जैसलमेर और माउंटआबू का बन गया था। अब नया धमाका यह था कि क्यों न कल जोधपुर जाया जाए? हममें से अधिकतर लोग पहली बार बाहर घूमने आए थे वो तो बहुत खुश हो गए। पर मेरे लिए यह धमाका किसी बम्ब धमाके से कम न था। दरअसल मैं फ्री लाउंसर सॉफ्ट स्किलस ट्रेनर हूँ और २३ और २५ की ट्रेनिंग्स पहले से ही तय थीं। सोचा था २१ को वापिस आ कर दो दिन घर संभालने को मिल जाएंगे। पर अब,,,, प्रोग्राम में थोड़ा सा भी बदलाव मेरे और मेरे क्लाइंट्स के लिए भारी हो सकता था। खैर, कम्पनी के मैनेजमेंट के लोग तो साथ ही थे। बात करके यह फाइनल हुआ कि किसी भी हालत में २२ की सुबह ७ बजे तक हम लोग हिसार पहुंच जाएंगे ताकि मुझे कोई दिक्क्त न आए। हमारे साथ गई एक लड़की का अगले दिन एमबीए का ऑनलाइन एग्जाम भी था, इसलिए रात को ही हम लोग जोधपुर के लिए निकल पड़े और रात के ३ बजे हम जोधपुर पहुंचे।
कहना न होगा,,, बहुत ही शानदार होटल में सबके रहने का प्रबंध किया गया था। अपने-अपने कमरे में पहुंच कर सब आराम फरमाने लगे। रात को ही मैसेज आ चुका था कि अगले दिन हम लोग सुबह जोधपुर की मशहूर खाना खाने जाएंगे। अगला दिन काफी सकून भरा था। सब आराम से तैयार हुए और खूब फोटो सेशन करवाया। इसके बाद हम लोग जोधपुर की मशहूर प्याज की कचौड़ी और मिर्ची बड़ा खाने गए। अभी तक की यात्रा में सिर्फ जोधपुर में ही कोरोना को लेकर थोड़ी बहुत पाबंदी दिखी थी। खाना कहते हुए कोई डिस्टर्ब न करे, इसलिए आख़िरकार हमने दूकान का शटर अंदर से बंद कर लिया और चैन से खस्ता कचौड़ी, मिर्ची बड़ा और चाय का आनंद लिया। नाश्ते में ही दो घंटे लगाने के बाद, हम सभी मेहरानगढ़ के किले की तरफ रवाना हो गए।
राजस्थान के प्रमुख और खूबसूरत किलों में से एक मेहरानगढ़ का किला कला की दृष्टि से बेजोड़ है। किले के अंदर कई शानदार महल और स्मारक बने हुए हैं। इन संग्राहलयों में जोधुपर के शासकों और राजपरिवारों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शाही वस्तुओं के अलावा युद्ध पोशाकों, पालकियों, विभिन्न प्रकार के फर्नीचर, पुरानी तोपें, तलवारों, शस्त्रों, हाथियों के हौदों, विभिन्न शैलियों के चित्रों, संगीत वाद्यों इत्यादि का आश्चर्यजनक संग्रह है।
किले के अंदर प्रवेश करते ही इसकी सुंदरता को देख कर सभी दंग रह गए। किले में कईं दरवाजे हैं। किले में २-३ जगह लोक कलाकार भी मिले। लोक संगीत बजाने वाले यह कलाकार, बीते वक्त की भव्यता पुन: जीवित करते हुए प्रतीत हुए । हमारे कुछ साथी लोगों ने उनके गानों पर डांस भी किया और फोटो भी खिंचवाई। किले के बायीं तरफ सलीके से व्यवस्थित किए गए हरे-भरे लान और वृक्षों ने मन को प्रफुल्लित कर दिया था। दुर्ग पर रखीं सुसज्जित तोपें भारत के गौरवमयी इतिहास को वर्णित कर रहीं थीं। हम सभी ने तोपों के साथ फोटो भी खिंचवाई। लगभग आधा दिन बिताने के बाद, हमलोग किले से बाहर आ गए।
जैसा कि हम सब जानते ही थे कि राजस्थान अपने भव्य महलों के अलावा अपने खास लजीज व्यंजनों के लिए भी जाना जाता है, तो हमने दाल-बाटी चूरमा खाने का प्रोग्राम बनाया। कुछ लोग खरीदारी करना चाहते थे वो बस में बैठ कर शॉपिंग के लिए चले गए और हम १० लोग ऑटो में बैठ कर जोधपुर की एक प्रमुख दुकान में दाल बाटी चूरमा खाने को चले आए। कुछ अलग ही सवाद लिए हुए था यह देसी घी में डूबा दाल-बाटी और चूरमा।
अब चूँकि शाम गहराने लगी थी और हम सबको भी वापिस आने की जल्दी थी, जल्दी में हमने एक ऑटो को रुकवाया और उसे निर्धारित स्थान पर पहुंचने को बोला। पर री किस्मत ! उसी नाम की दो जगह थीं। इसी चक्कर में २० मिनट और बर्बाद हो गए। खैर, जोधपुर से हिसार की वापसी का सफर भी नाचते गाते गुजरा और २२ दिसंबर की सुबह ७ बजे हम हम मधुर यादों को समेटे अपने शहर हिसार में वापिस आ गए थे।