कविता

घर

ये
मेरा
घर है
उसका तो
वो वाला घर
देश हमारा है
हम सबका घर ।
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ये
घर
मकान
चोंचले हैं
जीने के लिए
आसान जीवन
जीने के बहाने हैं।
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ये
ईंट
पत्थरों
का,ढांचा न
समझ लेना
सुकून मिलता
परिवार जुटता।
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घर
लौटते
हैं,अँधेरा
घिर रहा है,
अब देर नहीं
कर सकते हम।
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माँ
गई
घर से
मेरे साथ
ये भी उदास
इसकी भी तो माँ
छोड़कर गई न।
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*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921