कविता

पिता ही किश्ती पिता ही पतवार है

उंगली पकड़ कर चलना सिखाता है वो
दुनियाँ से लड़ना भी वही तो सिखाता है
चटाई बिछा कर के खुद सो जाता है
बच्चों को तो मखमली बिछौना बिछाता है
पढ़ लिख कर बच्चे बन जाएं इंसान
दिन भर मिट्टी की वो टोकरी उठाता है
जूतों में लगी है कील बार बार काटती
बच्चों को तो नए नए जूते पहनाता है
परेशानी कितनी हो खुद ही है झेलता
किसी को भी परेशानी नहीं बतलाता है
जिम्मेवारी पूरे परिवार की उठाता है वो
घाव हैं जो दिल में वो नहीं दिखलाता है
छत भी है पिता और पिता आसमान है
नन्हें से परिंदे की वो ऊंची उड़ान है
पिता है तो बच्चों के पूरे सब सपने हैं
बाजार के सभी खिलौने सारे अपने हैं
पिता से ही चलता सबका घरबार है
पिता से ही तो यह सारा संसार है
पिता ही से चलती है जीवन की नैया
वही किश्ती है और वही पतवार है
रवीन्द्र कुमार शर्मा
घुमारवीं
जिला बिलासपुर हि प्र

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र